Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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प्रस्तावना ।
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शिष्यको कहना कि जो लोग जीवका अस्तित्व नहीं मानते उनके मतमें दानादिका फल भी नहीं घटेगा । तब यह सुन कर बीचमें ही चार्वाक कहता है कि ठीक तो है फल न मिले तो नहीं । उसको उत्तर देना कि तब संसारमें जीवोंकी विचित्रता कैसे घटेगी ! यह निश्रावचन हैदशवै० नि० गा० ८० । (३) आहरणत होष
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(१) अधर्मयुक्त - प्रवचनके हितार्थ सावधकर्म करना अधर्मयुक्त होनेसे आहरणतदोष है । जैसे प्रतिवादी पोट्टशाल परिव्राजकने बादमें हारकर जब विद्याबलसे रोहगुप्त मुनिके विनाशार्थ बिच्छुओं का सर्जन किया तब रोहगुप्तने बिच्छुओं के विनाशार्थं मयूरोंका सर्जन किया जो अधर्मकार्य है'। फिर भी प्रवचन के रक्षार्थ ऐसा करनेको रोहगुप्त बाध्य थे - दशवै० नि० गा० ८१ चूर्णी ।
(२) प्रतिलोम - 'शाव्यं कुर्यात्, शठं प्रति' का अवलंबन करना प्रतिलोम है । जैसे रोहने पोशाल परिब्राजकको हरानेके लिये किया। परिव्राजकने जान कर ही जैन पक्ष स्थापित किया तब प्रतिवादी जैन मुनि रोहगुप्तने उसको हरानेके लिये ही जैनसिद्धान्तके प्रतिकूल त्रैराशिक पक्ष लेकर उसका पराजय किया । उनका यह कार्य अपसिद्धान्तके प्रचारमें सहायक होनेसे आहरणतदोषकोटि में है ।
चरकने वाक्पदोषोंको गिनाते हुये एक विरुद्ध भी गिनाया है। उसकी व्याख्या करते हुए
कहा है
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"विरुद्धं नाम यद् दृष्टान्तसिद्धान्त समयैर्विरुद्धम् ।" वही ५४ ।
इस व्याख्याको देखते हुए प्रतिलोम की तुलना 'विरुद्धवाक्यदोषसे' की जा सकती है । न्यायसूत्रसंमत अपसिद्धान्त और प्रतिलोममें फर्क यह है कि अपसिद्धान्त तत्र होता है जब शुरू में वादी अपने एक सिद्धान्तकी प्रतिज्ञा करता है और बादमें उसकी अवहेलना करके उससे विरुद्ध वस्तुको स्वीकार कर कथा करता है - "सिद्धान्तमभ्युपेत्या नियमात् कथाप्रसंगोपासिखान्तः ।" न्यायसू० ५.२.२४ । किन्तु प्रतिलोममें वादी किसी एक संप्रदाय या सिद्धान्तको वस्तुतः मानते हुए भी बादकथाप्रसंगमें अपनी प्रतिभाके बलसे प्रतिवादीको हराने की दृष्टिसे ही वसमतसिद्धान्त के विरोधी सिद्धान्तकी स्थापना कर देता है । प्रतिलोममें यह आवश्यक नहीं की वह शुरू में अपने सिद्धान्तकी प्रतिज्ञा करे । किन्तु प्रतिवादी के मंतव्यसे विरुद्ध मंतव्यको सिद्ध कर देता है। वैण्डिक और प्रातिलोमिक में फर्क यह है कि बैतण्डिकका कोई पक्ष नहीं होता अर्थात् किसी दर्शनकी मान्यतासे वह बद्ध नहीं होता । किन्तु प्रातिलोमिक वह है जो किसी दर्शन से तो बद्ध होता है किन्तु वादकथामें प्रतिवादी यदि उसीके पक्ष को स्वीकार कर वादका प्रारंभ करता है तो उसे हरानेके लिये ही स्वसिद्धान्तके विरुद्ध भी वह दलील करता है और प्रतिवादीको निगृहीत करता I
(३) आत्मोपनीत - ऐसा उपन्यास करना जिससे स्वका या स्वमतका ही घात हो । जैसे कहना की एकेन्द्रिय सजीव हैं क्यों कि उनका श्वासोच्छ्वास स्पष्ट दिखता है - दशवै० नि० चू० गा० ८३ ।
१ विशेषा० २४५६ | २ विशेषा० गा० २४५६ ।
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