Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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प्रस्तावना।
२७
गौतमने जब भगवान्से पूछा कि जीवपर्याय कितने हैं-संख्यात, असंख्यात या अनन्त ! तब भगवान्ने उसर दिया कि जीवपर्याय अनन्त हैं । ऐसा कहनेका कारण बताते हुए उन्होंने कहा है कि असंख्यात नारक है, असंख्यात असुर कुमार हैं, यावत् असंख्यात स्तनित कुमार है, असंख्यात पृथ्वीकाय हैं यावत् असंख्यात वायुकाय हैं, अनन्त वनस्पतिकाय हैं, असंख्यात द्वीन्द्रिय हैं यावत् असंख्यात मनुष्य हैं, असंख्यात वानव्यंतर हैं यावत् अनन्त सिद्ध हैं । इसी लिये जीवपर्याय अनन्त हैं । यह कथन प्रज्ञापनाके विशेष पदमें तथा भगवतीमें (२५.५) है । भगवतीमें (२५.२) जहाँ द्रव्यके भेदोंकी चर्चा है वहाँ उन मेदोंको प्रज्ञापनागत पर्यायमेदोंके समान समझ लेनेको कहा है । तथा जीव और अजीवके पर्यायोंकी ही चर्चा करने वाले समूचे उस प्रशापनाके पदका नाम विशेषपद दिया गया है। इससे यही फलित होता है कि प्रस्तुत चर्चा में पर्यायशब्द का अर्थ विशेष है अर्थात् तिर्यक् सामान्यकी अपेक्षासे जो पर्याय हैं अर्थात् विशेष विशेष व्यक्तियाँ हैं वे ही पर्याय हैं। सारांश यह है कि समस्त जीव गिने जाय तो वे अनन्त होते हैं अत एव जीवपर्याय अनन्त कहे गये हैं। स्पष्ट है कि ये पर्याय तिर्यग्सामान्यकी दृष्टिसे गिनाये गये हैं।
प्रस्तुतमें पर्याय शब्द तिर्यग्सामान्य विशेषका वाचक है यह बात अजीव पर्यायोंकीगिनतीसे मी स्पष्ट होती है । अजीव पर्यायोंकी गणना निम्नानुसार है-(प्रज्ञापना पद ५)
अजीवपर्याय
अरूपी
१ स्कंध
१ धर्मास्तिकाय २ धर्मास्तिकायदेश
२ स्कंधदेश ३ धर्मास्तिकायप्रदेश
३ स्कंधप्रदेश १ अधर्मास्तिकाय
४ परमाणुपुद्गल ५ , देश ६ , प्रदेश ७ आकाशास्तिकाय
८ , देश , ९ , प्रदेश
१० अद्धासमय किन्तु जीवविशेषोंमें अर्थात् नारक देव मनुष्य तिर्यच और सिद्धोंमें जब पर्यायका विचार होता है तब विचारका अाधार बिलकुल बदल जाता है । यदि उन विशेषोंकी असंख्यात या अनन्त संख्याके अनुसार उनके असंख्यात या अनन्तपर्याय कहे जाय तो यह तिर्यग्सामान्य की दृष्टिसे पर्यायोंका कथन समझना चाहिए परंतु भगवान्ने उन जीवविशेषोंके पर्यायके प्रश्नमें सर्वत्र अनन्त पर्याय ही बताये हैं। नारक जीव व्यक्तिशः असंख्यात ही हैं अनन्त नहीं;
१.प्रज्ञापमापद।
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