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प्रस्तावना।
जैनशास्त्रप्रसिद्ध ज्ञानचर्चा और दर्शनान्तरप्रसिद्ध प्रमाणचर्चाका समन्वय करनेका प्रयन नहीं किया - दोनों चर्चाका पार्थक्य ही रखा । आगेके वक्तव्यसे यह बात स्पष्ट हो जायगी।
४. जैन आगमोंमें प्रमाणचर्चा । (१) प्रमाणके मेद।
जैन आगोंमें प्रमाणचर्चा ज्ञानचर्चासे खतन्त्ररूपसे आती है । प्रायः यह देखा गया है कि आगमोंमें प्रमाणचर्चा के प्रसंगमें नैयायिकादिसंमत चार प्रमाणोंका उल्लेख आता है । कहीं कहीं तीन प्रमाणोंका भी उल्लेख है । ___ भगवती सूत्र (५.३.१९१-१९२) में गौतम गणधर और भगवान् महावीरके संवादमें गौतमने भगवान्से पूछा कि जैसे केवल ज्ञानी अंतकर या अंतिम शरीरीको जानते हैं वैसे ही क्या छमस्थ भी जानते है ? इसके उत्तरमें भगवान् महावीरने कहा है कि__ "गोयमा णो तिणढे समढे । सोचा जाणति पासति पमाणतो वा । से किं तं सोचा। केवलिस्स वा केवलिसावयस्स वा केवलिसावियाए वा केवलिउवासगरस वा केवलिउपासियाए वा....."से तं सोया । से किं तं पमाणं? पमाणे चउविहे पण्णत्ते-तं जहा पञ्चक्ने अणुमाणे ओवम्मे आगमे जहा अणुओगद्दारे तहा णेयव्वं पमाणं" भगवतीसूत्र ५.३.१९१,१९२।
प्रस्तुतमें स्पष्ट है कि पांच ज्ञानोंके आधार पर उत्तर न देकर मुख्य रूपसे प्रमाणकी दृष्टिसे उत्तर दिया गया है । 'सोचा' पदसे श्रुतज्ञानको लिया जाय तो विकल्पसे अन्यज्ञानोंको लेकरके उत्तर दिया जा सकता था । किन्तु ऐसा न करके परदर्शनमें प्रसिद्ध प्रमाणोंका आश्रय लेकरके उत्तर दिया गया है । यह सूचित करता है कि जैनेतरोंमें प्रसिद्ध प्रमाणोंसे शास्त्रकार अनभिज्ञ नहीं थे । और वे खसंमत ज्ञानों की तरह प्रमाणोंको भी इप्तिमें खतन्त्र साधन मानते थे।
स्थानांगसूत्रमें प्रमाणशब्दके स्थानमें हेतुशब्दका प्रयोग भी मिलता है । इप्तिके साधनभूत होनेसे प्रत्यक्षादिको हेतुशब्दसे व्यवहृत करने में औचित्यभंग भी नहीं है।
"अहवा हेऊ च उठिवहे पण्णत्ते, तंजहा पश्चक्खे अणुमाणे ओवम्मे आगमे।" स्थानांग सू०३३८॥
चरकमें भी प्रमाणोंका निर्देश हेतु शब्दसे हुआ है“अथ हेतुः-हेतुर्नाम उपलब्धिकारणं तत् प्रत्यक्षमनुमानमैतिघमौपम्यमिति । पभिहेतुभिर्यदुपलभ्यते तत् तत्त्वमिति ।" चरक० विमानस्थान अ० ८ सू० ३३ ।
उपायहृदयमें भी चार प्रमाणोंको हेतु कहा गया है -पृ० १४ __ स्थानांगमें ऐतिह्यके स्थानमें आगम है किन्तु चरकमें ऐतिह्यको आगम ही कहा है अत एव दोनोंमें कोई अंतर नहीं - "ऐतिचं नामाप्तोपदेशो वेदादिः" वही सू०४१। .
अन्यत्र जैननिक्षेप पद्धतिके अनुसार प्रमाणके चार भेद भी दिखाये गये हैं - "चउब्धिहे पमाणे पन्नत्ते तं जहा-दव्यप्पमाणे खेत्तप्पमाणे कालप्पमाणे भावपमाणे" स्थानांग सू० २५८ ।
प्रस्तुत सूत्रमें प्रमाण शब्दका अतिविस्तृत अर्थ लेकर ही उसके चार भेदोंका परिगणन
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