Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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प्रस्तावना
स्पष्टीकरण कि अश्रुतनिःसृतके वे दो भेद इन्द्रियज अश्रुतनिःसृतकी अपेक्षासे समझना चाहिए, नन्दीसूत्रानुकूल नहीं किन्तु कल्पित है । मतिज्ञानके श्रुतनिःसृत और अश्रुतनिःसृत ऐसे दो भेद भी प्राचीन नहीं । दिगम्बरीयवाङ्मयमें मतिके ऐसे दो भेद करनेकी प्रथा नहीं । आवश्यक नियुक्तिके ज्ञानवर्णनमें भी मतिके उन दोनों भेदोंने स्थान नहीं पाया है। __ आचार्य उमाखातिने तत्वार्थसूत्रमें भी उन दोनों भेदोंका उल्लेख नहीं किया है । यद्यपि खयं नन्दीकारने नन्दीमें मतिके श्रुतनिःसृत और अश्रुतनिःसृत ऐसे दो भेद तो किये हैं तथापि मतिज्ञानको पुरानी परंपराके अनुसार अठाईस भेदवाला ही कहा है उससे भी यही सूचित होता है कि औत्पत्तिकी आदि बुद्धिओंको मतिमें समाविष्ट करनेके लिये ही उन्होंने मतिके दो भैद तो किये पर प्राचीन परंपरामें मतिमें उनका स्थान न होनेमे नन्दी कारने उसे २८ भेदभिन्न ही कहा । अन्यथा उन चार बुद्धिओं को मिलाने से तो वह ३२ भेदभिन्न ही हो जाता है । (३) तृतीय भूमिका नन्दीसूत्रगत ज्ञानचर्चा में व्यक्त होती है - वह इस प्रकार
ज्ञान १ आभिनिबोधिक २ श्रुत ३ अवधि मनःपर्यय ५ केवल
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१ प्रत्यक्ष
२परोक्ष
२ नोइन्द्रियप्रत्यक्ष
१ अवधि
१ आभिनिबोधिक
२ श्रुत
१ इन्द्रियप्रत्यक्ष
१ श्रोत्रेन्द्रियप्र० २ चक्षुरिन्द्रियप्र० ३ घ्राणेन्द्रियप्र० ४ जिह्वेन्द्रियप्र० ५ स्पर्शेन्द्रियग्र०
२ मनःपर्यय ३ केवल
१ श्रुतनिःसृत
२ अश्रुतनिःसृत
१ अवग्रह
२ ईहा
३ अवाय
४ धारणा ।
२ वैनयिकी
४ पारिणामिकी
१ औत्पत्तिकी
३ कर्मजा
१ व्यंजनावग्रह
२ अर्थावग्रह
६
१ "एवं अट्ठावीसइविहस्स आभिणिबोहियनाणस्स" इत्यादि नन्दी०३५ । २ स्थानांगमें ये दो भेद मिलते हैं। किन्तु वह नन्दीप्रभाषित हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
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