Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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प्रस्तावना।
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होनेका कारण यह है कि चरकसंहिता किसी एक व्यक्तिकी रचना न होकर कालक्रमसे संशोधन और परिवर्धन होते होते वर्तमानरूप बना है । यह बात-निन्न कोष्ठकसे स्पष्ट हो जाती है
सूत्रस्थान अ० ११. आप्तोपदेश प्रत्यक्ष अनुमान युक्ति विमानस्थान १०४ ", अ०८ ऐतिय (आप्तोपदेश),
औपम्य " " "
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___ उपदेश , , यही दशा जैनागमोंकी है। उसमें भी चार और तीन प्रमाणों की परंपराओंने स्थान पाया है।
स्थानांगके उक्त सूत्रसे भी पंच ज्ञानोंसे प्रमाणोंका पार्यक्य सिद्ध होता ही है । क्योंकि व्यवसायको पंच ज्ञानोंसे संबद्ध न कर प्रमाणोंसे संबद्ध किया है।
फिर भी आगममें छान और प्रमाणका समन्वय सर्वथा नहीं हुआ है यह नहीं कहा जा सकता । उक्त तीन प्राचीन भूमिकाओंमें असमन्वय होते हुए भी अनुयोगद्वारसे यह स्पष्ट है कि बादमें जैनाचार्योंने ज्ञान और प्रमाणका समन्वय करनेका प्रयत्न किया है । किन्तु यह भी ध्यानमें रहे कि पंच ज्ञानोंका समन्वय स्पष्टरूपसे नहीं है, पर अस्पष्ट रूपसे है। इस समन्वयके प्रयनका प्रथम दर्शन अनुयोगमें होता है । न्यायदर्शनप्रसिद्ध चार प्रमाणोंका ज्ञानमें समावेश करनेका प्रया अनुयोगमें है ही। किन्तु वह प्रया जैन दृष्टिको पूर्णतया लक्ष्यमें रख कर नहीं हुआ है अतः बादके आचार्योंने इस प्रश्नको फिरसे मुलझानेका प्रयन किया और वह इस लिये सफल हुआ कि उसमें जैन आगमके मौलिक पंचज्ञानोंको आधारभूत मान कर ही जैन दृष्टिसे प्रमाणोंका विचार किया गया है। ___ स्थानांगसूत्रमें प्रमाणोंके द्रव्यादि चार भेद जो किये गये हैं उनका निर्देश पूर्वमें हो चुका है । जैनव्याख्यापद्धतिका विस्तारसे वर्णन करनेवाला अन्य अनुयोगद्वार सूत्र है । उसको देखनेसे पता चलता है कि प्रमाणके द्रव्यादि चार मेद करने की प्रथा, जैनोंकी व्याख्यापद्धतिमूलक है । शब्दके व्याकरण-कोषादिप्रसिद्ध सभी संभावित अर्थोका समावेश करके, व्यापक अर्थमें अनुयोगद्वारके रचयिताने प्रमाणशब्द प्रयुक्त किया है यह निम्न नकशेसे सूचित हो जाता है
न्या. प्रस्तावमा
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