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प्रस्तावना
चूँकि ये द्रव्य हैं। इसलिए जिनेन्द्रदेव ने इन्हें अस्ति कहा है और शरीर की तरह बहुत प्रदेशवाले इसलिए 'काय' कहा है। अस्ति और काय होने से ये अस्तिकाय हैं।
आचार्य कन्दकन्द ने 'पंचास्तिकाय' ग्रन्थ में लिखा है
जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा तहेव आया।
अत्थि तम्हि य णियदा अणण्णमइया अणुमहंता ॥४॥ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश ये पाँचों उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त होने से 'सत्' हैं। इनका अस्तित्व सुनिश्चित है। तथा जैसे घट से रूप अभिन्न है, वैसे ही ये सत्ता से अभिन्न हैं अर्थात् स्वयं सत्स्वरूप हैं। तथा 'अणु' शब्द से यहाँ 'प्रदेश' लिये गये हैं। मूर्त और अमूर्त द्रव्यों के निर्विभागी अंश को प्रदेश कहते हैं। प्रदेश की माप अणु से की जाती है। पुद्गल का एक परमाणु जितने आकाश को रोकता है, उतने का नाम प्रदेश है। ये पाँचों द्रव्य अणुमहंता-प्रदेश प्रचयरूप हैं। आशय यह है कि जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य अवयवी हैं, क्योंकि इनके प्रदेश नामक अवयव हैं। उन अवयवों से उनका अभेद है, अतः ये पाँचों द्रव्य काय
हैं।
शंका-पुद्गल का परमाणु तो एक प्रदेशी है, वह काय कैसे है?
समाधान-यद्यपि परमाणु निरवयव है, तथापि उसमें सावयवत्व शक्ति है। स्निग्ध, रूक्षत्व गुण के कारण एक परमाणु दूसरे परमाणुओं से सम्बद्ध होकर बहुप्रदेशी हो जाता है, इसलिए उसे उपचार से काय कहा है। किन्तु कालद्रव्य भी यद्यपि अणुरूप है; किन्तु अमूर्तिक होने से उसमें स्निग्ध-रूक्षत्व गण नहीं है। इसलिए एक कालाणु का दूसरे कालाणु के साथ बन्ध नहीं होता। अतः कालद्रव्य उपचार से भी काय नहीं है।
शायद कहा जाय कि पुद्गल के सिवाय शेष चारों द्रव्य भी अमूर्तिक होने से अखण्ड हैं। उनमें यह विभाग सम्भव नहीं है, तब उन्हें सावयव कैसे माना जा सकता है? ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि अखण्ड आकाश में भी यह घटाकाश है और यह पटाकाश है, ऐसी विभाग-कल्पना देखी जाती है। यदि उसमें
न की जाय. तो जिस आकाश में वाराणसी बसी है और जिसमें कलकत्ता बसा है, वे दोनों एक हो जाएँगे। किन्तु इसे कोई भी स्वीकार नहीं करेगा। अतः कालाणु के सिवाय अन्य सभी द्रव्य काय या सावयव हैं।
इन ही पंचास्तिकायों से तीनों लोक बने हुए हैं। ये ही मूल पदार्थ हैं, इन ही के उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप भावों तथा गुणपर्यायों से तीनों लोक निर्मित हैं। धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य सर्वलोकव्यापी हैं। ये ही ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक रूप से परिणमित हैं। अतः उनका कायपना या सावयवपना अनुमान से भी सिद्ध होता है। एक जीवद्रव्य अपने शरीर के बराबर है। यद्यपि प्रदेशों की अपेक्षा वह भी लोकाकाश के बराबर है, क्योंकि जब केवली अवस्था में जीव लोकपूरण समुद्घात करता है, तो वह सर्वलोकव्यापी हो जाता है। अतः जीव भी सावयव है। पुद्गल का परमाणु यद्यपि एकप्रदेशी है; किन्तु महास्कन्ध तीनों लोकों में व्याप्त है, अतः उसमें भी उस प्रकार की शक्ति होने से पुद्गल द्रव्य भी सावयव है। एक कालद्रव्य ही निरवयव है।
शायद कहा जाय कि यदि वे द्रव्य सावयव हैं, तो अवयवों का विशरण होने पर इनका विनाश हो जाएगा। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है। जिनके अवयव कारणपूर्वक होते हैं, उनके अवयवों का विशरण होता है; जैसे तन्तुओं के मेल से बना वस्त्र तन्तुओं के अलग-अलग होने पर नष्ट हो जाता है। इस तरह धर्मादि द्रव्यों के प्रदेश अन्य द्रव्यों के मेल से बने हुए नहीं हैं। जैसे घट का द्रव्य रूप से विभाग हो जाता है, वह फूटकर कपालरूप हो जाता है, वैसा विभाग इन द्रव्यों में नहीं होता। इस दृष्टि से वे निरवयव हैं। अतएव नित्य
३. सात तत्त्व-नव पदार्थ
जीवद्रव्य-उक्त छह द्रव्यों और पाँच अस्तिकायों में एक जीवद्रव्य ही चेतन है; शेष सब द्रव्य अचेतन हैं। उन अचेतन द्रव्यों में भी एक पद्गलद्रव्य ही ऐसा है जो संसारदशा में जीव से सम्बद्ध होकर जीव के विकार में
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