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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन (११) आगति- जीवों की अन्य जन्मों से विवक्षित जन्म में आने की योग्यता आगति कहलाती है।
(५.२८०) (१२) आत्मांगुल- जिस काल में जो मनुष्य अपनी अंगुल के माप से एक सौ साठ अंगुल ऊँचा हो
उसका अंगुल आत्मांगुल कहलाता है। (१.३६) परमाणु, रथरेणु, त्रसरेणु, लीख, जूं और जौ इन्हें अनुक्रम से आठ-आठ गुना करते जाने पर उत्सेधांगुल का माप आयेगा। फिर उत्सेधांगुल को हजार गुना करने से 'प्रमाणांगुल' आयेगा और उसे ही दो गुना करने से
'आत्मांगुल' आयेगा। (१.३६-४१, पेज ७) (१३) इन्द्रिय- इन्द्रिय इन्द् धातु से बना शब्द है। यह धातु ऐश्वर्यवान अर्थक है। आत्मा ऐश्वर्यवान
है इसलिए आत्मा भी इन्द्र कहलाती है। शरीरधारी आत्मा के लिंग-चिह्न को इन्द्रिय कहते हैं।
(३.४६४-४६५) (१४) ईहा- अवगृहीत पदार्थ के धर्म की खोज करना ईहा है। (३.७११) (१५) उत्सेधांगुल- अनन्त व्यावहारिक परमाणुओं की एक 'उत्श्लक्ष्ण-श्लक्ष्णिका' होती है। आठ
उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकाओं की एक 'श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका' होती है। आठ श्लक्ष्ण-श्लक्ष्णिकाओं का एक ऊर्ध्वरेणु होता है। आठ ऊर्ध्वरेणु का एक त्रसरेणु होता है। आठ त्रसरेणु का एक रथरेणु होता है। आठ रथरेणु का कुरुक्षेत्र के युगलियों का एक केशाग्र होता है। भरत क्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र के मनुष्यों के आठ केशायों के द्वारा एक लीख का मान होता है। आठ लीख का मान एक जूं है और आठ जूं प्रमाण से जौ का मध्यभाग होता है। इस तरह आठ जौ माप
प्रमाण एक उत्सेध अंगुल होता है। (१.२१-३०) (१६) उपयोग- पाँच ज्ञान, तीन अज्ञान और चार दर्शन ये बारह उपयोग कहलाते हैं यह जीव का
लक्षण है। (३.१०७४) (१७) उपसर्ग- जिससे प्राणी को उपसर्ग प्राप्त हो और जो धर्म से विमुख कर दे, उस पीड़ा विशेष
को उपसर्ग कहते हैं। ये उपसर्ग देव, मनुष्य, तिथंच और स्वसंवेद्य से सम्बन्धित होते हैं।
(३०.३६७ एवं ३६८) (१८) एक समयसिद्ध- मनुष्यत्व प्राप्त कर मुक्त होने की योग्यता वाले जितने जीव एक समय में
सिद्ध होते हैं, उन्हें एक समयसिद्ध कहते हैं। (३.२८३) (१६) कषाय- जिसके कारण मनुष्य को संसार रूपी अटवी में आवागमन करना पड़े, परिभ्रमण
करना पड़े, जन्म-मृत्यु के चक्कर करना पड़े, वह कषाय है। (३.४०६) (२०) कायस्थिति- पृथ्वीकाय आदि जीव मृत्यु प्राप्त करके जब पुनः पुनः वहीं उत्पन्न होता है