________________
( ल०) अत्रोच्यते निष्फलत्वादित्यसिद्ध, प्रकृष्टशुभाध्यवसायनिबन्धनत्वेन ज्ञानावरणीयादिलक्षणकर्म्मक्षयादिफलत्वाद्, उक्तं च,
'चैत्यवन्दनतः सम्यक्, शुभो भावः प्रजायते । तस्मात्कर्म्मक्षयः सर्वं ततः कल्याणमश्नुते' । इत्यादि । (पं०) - अत्र 'उच्यते' प्रतिविधीयते निष्फलत्वादित्यसिद्धम्' - 'इतिः' हेतुस्वरूपमात्रोपदर्शनार्थः । ततो यन्निष्फलत्वं हेतुतयोपन्यस्तं तद् असिद्धं = असिद्धाभिधानहेतुदोषदूषितम् । कुत इत्याह, 'प्रकृष्ट....'' इत्यादि । अयमत्र भावो - लोकोत्तरकुशलपरिणामहेतुश्चैत्यवन्दनं; स च परिणामो यथासम्भवं ज्ञानावरणीयादिस्वभावकर्मक्षय क्षयोपशमोपशमफलः, कर्मादानाध्यवसायविरुद्धत्वात्तस्य । ततः कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणपरमपुरुषार्थ मोक्षफलतया चैत्यवन्दनस्य निष्फलव्याख्येयार्थविषयतया तद्व्याख्यानस्यानारम्भाऽऽसंजनमयुक्तमिति ।
चैत्यवन्दनकी निष्फलता - सफलता पर चर्चा
अब चैत्यवन्दन-व्याख्या ग्रन्थका परिश्रम सफल हो, ग्रन्थ प्रेक्षावान् पुरुषके लिए आदरणीय हो, सम्बद्ध अर्थका प्रतिपादक हो, इत्यादिके लिए मङ्गल अभिधेयादिका जो निवेदन किया, वहाँ वादीका यह कथन है कि चैत्यवन्दन-व्याख्यानके परिश्रममें सफलता है यह विचारणीय है; अर्थात् सफलता नहीं है, वैसा हमारा अभिप्राय है। कारण यह है कि चैत्यवन्दन ही निष्फल है। अथवा जहाँ चैत्यवन्दनमें पुरुषोपयोगी कोई लाभ नहीं दिखाई देने से अगर वह भी निष्फल है, तो उसके संबन्धी व्याख्यानके परिश्रमका क्या पूछना ? इस लिए चैत्यवन्दनकी व्याख्या करना फजूल है। जो निष्फल है, उसका आरम्भ नहीं करना चाहिए; जैसे कि कण्टककी डालको तोडनेमें कोई लाभ नहीं, तो तोडनेका परिश्रम कौन करता है ? वैसा ही है चैत्यवन्दन व्याख्याका प्रयत्न; अत: वह नहीं करना चाहिए। नियम ऐसा है कि जहाँ यत्न होता है, वहाँ सफलता अवश्य होनी चाहिए । यहाँ 'यत्न' व्याप्य धर्म है, ‘सफलता' व्यापक धर्म है। व्याप्य धर्म व्यापक धर्मको छोड़कर नहीं रह सकता । दृष्टान्तसे 'जहाँ धुवाँ है वहाँ अग्नि अवश्य है।' इसमें व्याप्य है धुवाँ, व्यापक है अग्नि । व्यापक अग्नि जहाँ है वहाँ ही व्याप्य धुवाँ हो सकेगा; जहाँ अग्नि नहीं वहां धुवाँ भी नहीं। ऐसे यहाँ चैत्यवन्दन - व्याख्यामें अगर व्यापक अंश 'सफलता' की अनुपलब्धि है, अर्थात् वह नहीं दीखती, तब व्याप्य अंश 'प्रयत्न' भी कैसे ? तात्पर्य, व्याख्या मत करो। इतना हुआ वादीका वक्तव्य ।
चैत्यवन्दनका सम्यक्करण
अब वादीके कथनका निराकरण करने के लिए ग्रंथकार महर्षि कहते हैं कि चैत्यवन्दन- व्याख्याका प्रयत्न न करने में हेतु जो चैत्यवन्दनकी निष्फलता दिखलाया, वह हेतु ही असिद्ध है । क्यों कि चैत्यवन्दन तो प्रबल शुभ अध्यवसायकी उत्पत्ति द्वारा ज्ञानावरणीयादि स्वरूप कर्मके क्षयादिका लाभ कराता है, अतः निष्फल नहीं है।
पञ्जिकाकार कहते हैं कि मूलग्रन्थमें ' निष्फलत्वादिति' इस तरह जो दो पद दिए हैं, वहाँ 'इति' पद हेतुस्वरूपका दर्शक होनेसे, यह विवक्षित है कि निष्फलत्व नामका हेतु असिद्ध है, यानी 'असिद्धि' नामके तुदोषसे दूषित है । अर्थात् चैत्यवन्दनमें निष्फलता तो नहीं किंतु सफलता सिद्ध है; क्यों कि वह उत्कृष्ट शुभ अध्यवसाय (शुभ आत्मिकभाव) का कारण है । यहाँ तात्पर्य ऐसा है कि चैत्यवन्दन अलौकिक पुरुष श्री सर्वज्ञ
Jain Education International
९
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org