Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
View full book text
________________
ऐतिहासिक-सन्दर्भ अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं, जिनका विद्वानों ने विस्तार से अध्ययन किया है।' कुवलयमाला के इस उल्लेख से भारत में हूण राजाओं का भारतीयकरण होता जा रहा था, इस बात का संकेत मिलता है। डा० उपाध्ये ने अपने इण्ट्रोडक्शन (पृ०९९) में तोरमाण पर विशेष प्रकाश डाला है । देवगुप्त एवं हरिगुप्त
इन दोनों राजाओं को उद्द्योतनसूरि ने गुप्तवंश से सम्बन्धित कहा है (देवगुत्तो वंसे गुत्ताण (३.२८)। किन्तु प्रसिद्ध गुप्त सम्राटों के इतिहास में इस नाम के या इनसे मिलते-जुलते नाम के राजाओं का उल्लेख नहीं मिलता। सम्भवतः ये गुप्तवंश के कोई छोटे राजा रहे होंगे, जो वास्तव में एक महाकवि और दूसरा जैन आचार्य के रूप में अधिक प्रसिद्ध थे, इस कारण बड़े सम्राटों के साथ इनका उल्लेख नहीं हो सका है । डा० उपाध्ये हरिगुप्त को उद्द्योतनसूरि से छह पीढ़ी पूर्व का निश्चित करते हुए उनका समय लगभग ५०० ई० मानते हैं, तभी वे तोरमाण के गुरु रहे होंगे। श्रीवत्सराजरणहस्तिन्
कुवलयमाला के इस सन्दर्भ से प्रसिद्ध प्रतिहार राजा श्रीवत्सराज के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण प्रकाश पढ़ता है। प्राचार्य जिनसेन द्वारा उल्लिखित वत्सराज के सम्बन्ध में विद्वानों ने विस्तार से विचार किया था और एक समुदाय वत्सराज को अवन्ति का राजा स्वीकारने लगा था। किंतु कुवलयमाला के उक्त सन्दर्भ एवं अन्य साक्ष्यों के आधार पर डा० दशरथ शर्मा ने वत्सराज को भिन्नमाल • (राजस्थान) का राजा सिद्ध किया है, जिसके राज्य में कुवलयमाला का रचनास्थल जावालिपुर (जालौर) भी था। वत्सराज उद्द्योतनसूरि के समकालीन राजा थे, जिनकी मृत्यु लगभग ७६४ ई० में निर्धारित की गयी है। १. द्रष्टव्य -(१) जैनसाहित्य संशोधन ३, २, पृ० १६९.९४, १९२७ पूना ।
(२) भारतीय विद्या २,१-बम्बई, १९४०. (३) 'जैन रिकार्डस् आन तोरमाण'-एन० सी० मेहता, जर्नल आफ द
बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी, १९, भाग, १९२८. (४) जैनसिद्धान्तभास्कर, भाग २०, २-पृ० १.६, आर०, १९५३. (५) सिलेक्टेड इन्सक्रिप्सन्स--सरकार, पृ० ३९६, कलकत्ता, १९४२. (६) द हूण इन इंडिया-उपेन्द्र ठाकुर, १९६७. (७) 'तोरमाण इन कुवलयमाला'-के०पी० मित्र-इंडियन हिस्टो
रिकल क्वाटर्ली, भाग ३३, पृ० ३५३, १९५७. २. उ०-कुव० इ०, पृ० ९८. ३. श०-रा०ए०, पृ० १२८ एवं कुव० ई०, पृ० १००. ४. विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य
(१) श०-रा० ए०, पृ० १३४.