Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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समुद्र-यात्राएँ
२०३ विशेष सामग्री प्रस्तुत करती हैं।' इन सभी प्रसंगों में समुद्रयात्रा का उद्देश्य अपार धन कमाना है। लोमदेव सोपारक की व्यापारिक-मण्डी में रत्नद्वीप की यात्रा द्वारा अपार धन प्राप्ति की बात सुनकर स्वयं वहाँ की यात्रा करने के लिए तैयार हो जाता है, जिससे वह भी अधिक कमा सके ।२ पाटलिपुत्र का व्यापारी कुबेर के समान धनी होने पर भी धनार्जन हेतु रत्नद्वीप की यात्रा पर चल देता है। सागरदत्त अपनी बाहुओं द्वारा सात करोड़ रुपये कमाने के लिए समुद्रयात्रा के व्यापार को ही उचित समझता है। दो वणिकपुत्र मजदूरी के लोभ से ही समुद्रयात्रा करनेवाले व्यापारी के साथ हो जाते हैं। समुद्रयात्रा में धनोपार्जन के इस उद्देश्य को देखते हुए प्रतीत होता है कि आठवीं सदी में भारतीय व्यापारी अरब-बाजार के ठाठ-बाट से परिचित हो चुके थे। अत: उनके मन में धन बटोरने एवं सुख-सामग्री को एकत्र करने की प्रतिस्पर्द्धा जाग गयी थी। इससे भारतीय जहाजरानी का काफी विकास हुआ है। यात्रा की कठिनाइयाँ
समुद्रयात्रा करने में धनार्जन का लोभ तो था, किन्तु इसके लिए उत । ही साहस की भी आवश्यकता थी। आठवीं सदी में जलमार्ग की कठिनाइयाँ कम नहीं हुई थीं। सीमा के बन्दरगाहों पर विदेशियों का धीरे-धीरे अधिकार होता जा रहा था। अतः भारतीय व्यापारियों को चीन, स्वर्णद्वीप, रत्नद्वीप आदि जाने के लिए अन्य मार्ग अपनाने पड़ते थे, जो अनेक कठिनाइयों से भरे थे।
कुव० में सोपारक से रत्नद्वीप जाने का समुद्री-मार्ग अत्यन्त कठिन था। जो व्यापारी वहाँ होकर आया था वह अन्य व्यापारियों के समक्ष इस मार्ग की कठिनाइयों का वर्णन इस प्रकार करता है-समुद्र को पार करना दुष्कर है, रत्नद्वीप काफी दूर है, प्रचंड वायु, चपल बीजापहवा (वीथि), चंचल तरंगें, बड़े-बड़े मच्छ, मगर एवं ग्राह, दीर्घतन्तु (?) गलादेनेवाली तिमिगिली, रौद्र राक्षस, उड़नेवाले वेताल, दुलंध्य पर्वत, कुशलचोर, विकराल महासमुद्र तथा दुर्लध्य मार्ग के कारण रत्नद्वीप सर्वथा दुर्गम है। इसलिये मैंने कहा कि वहाँ का व्यापार उसे सुन्दर है, जिसे अपना जीवन प्रिय न हो (६६.९) । अन्य व्यापारी भी उसकी बात सत्य मानकर कहते हैं कि सचमुच रत्नद्वीप दुर्गम है
१. कुव० ६७.१, ३०, ८९.८, १०५.३१ एवं १९१.१४. २. महंतो एस लाभो जं णिव-पत्तहिं रयणाई पाविज्जति । ता किं ण तत्थ रयणदीवे
गंतुमुज्जमो कीरइ ।- ६६.१२. ३. सोय धणवइ-सम धणोवि होउण रयणद्दीवं जाणवत्तेण चलिओ।-८८.३०. ४, वही १०५.२६.
वही १९१.१३. ६. द्रष्टव्य-गो०-इ० ला० इ०, पृ० ११९.३०. ७. गिलणो तिमिगिली, ६६.८.