Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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प्रमुख-धर्म
३५९ नहीं हुआ। क्योंकि अग्नि में डाली हुई वस्तु देवताओं तक पहुँचती है यह जानना तो दूर, अग्नि में भात पकाने वाला व्यक्ति स्वयं यह नहीं जानता कि वह उसे मिलेगा या दूसरे को (२०४.९)।
__ अग्निहोम द्वारा स्वर्गगमन के अभिलाषी आचार्यों को अग्निहोत्रवादी कहा जाता था । सूत्रकृतांग (७, पृ० १५४) में इन्हें कुशील साधुओं की श्रेणी में रखा गया है । आठवीं सदी में अनेक यज्ञ एवं बलि आदि का प्रचार था। अतः अग्निहोत्रवादो भी प्रमुख धार्मिक आचार्यों में गिने जाते रहे होंगे। १०वीं सदी तक इनकी अधिक प्रसिद्धि हो गयी थी। जैनधर्म पर भी इनका प्रभाव पड़ा होगा तभी सोमदेव ने पांच अहिंसक यज्ञों का जैन श्रावकों के लिए दान के रूप में विधान किया है।' तत्कालीन अभिलेख आदि साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि जैन संस्थाओं को अनुदान देते समय बलिचरुदान, वैश्यदेव, एवं अग्निहोत्र आदि के लिए अलग से दान की व्यवस्था की जाती थी। उद्योतनसूरि के सयय यद्यपि अग्निहोत्रवादियों के सिद्धान्त को जैनधर्म की तुलना में स्वीकार नहीं किया गया, किन्तु १०वीं सदी तक अहिंसक अग्निहोम जैनधर्म के क्रियाकाण्डों में सम्मिलित हो चुके थे। यहाँ भी राजा ने काकबलि को यह कहकर स्वीकार किया है कि काकबलि कौन नहीं देना चाहता ? किन्तु अग्नि में अन्न जलाना उन्हें उचित प्रतीत नहीं हुआ।
वानप्रस्थ–'सभी परिग्रह को छोड़कर, वन में जाकर, बल्कल धारण कर कन्दमूल, फलपुष्प आदि का भोजन करना ऋषियों का धर्म है।" इस मत के आचार्य वानप्रस्थ कहलाते थे। वानप्रस्थों की क्रियाओं के आधार पर उनके औपपादिकसूत्र में अनेक भेद गिनाये गये हैं। तदनुसार कुवलयमाला के ये आचार्य बकवासी वानप्रस्थ प्रतीत होते हैं। राजा को इनका निःसंग रहना तो पसन्द है किन्तु अन्य क्रियाओं में जीवघात होने के कारण वह इनका मत नहीं स्वीकार करता। बल्कल धारण कर राजा के सन्यस्त होने की परम्परा उद्योतन के पूर्व हर्षचरित में भी प्राप्त होती है।'
वर्णवादी-'राजाओं का राजधर्म, ब्राह्मणों का ब्राह्मणधर्म, वैश्यों का वैश्यधर्म तथा शूद्रों का अपना कर्तव्य करना ही धर्म है। यह विचार-धारा
१. ह०-य० इ० क०, पृ० ३३३. २. अ०-रा० दे० टा०, पृ० ३१४. ३. द जैन एण्टीक्यूरी भा० ६, नं० २, पृ० ६४. ४. कुव०, २०४.९.
कुव०, २०४.११. ६. ज०-० भा० स०, पृ० ४१३-१५. ७. कुव०, २०४.१३. ८. अविनाम-गृहणीपाद् बल्कले-हर्षचरित, उ० ५.
कुव०-२०५.११.
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