Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन उद्द्योतन ने भी उल्लेख किया है । इन्द्र शक्ति एवं हजार नेत्र के लिए उद्द्योतन के समय में भी प्रसिद्ध था ।
सप्त मातृकाएँ--पुत्रप्राप्ति के लिए राजा दृढ़वर्मन् रौद्र सप्त मातृकाओं की आराधना करने के लिए भी तैयार था । यद्यपि सप्तमातृकाओं का सम्बन्ध भयंकर एवं निर्दय सम्प्रदाय से था। किन्तु उन्हें प्रारम्भिक चौलुक्य राजाओं ने अपनी संरक्षिका देवी के रूप में माना है । सम्भवतः उद्द्योतनसूरि के समय में सप्त-मातृकाएँ पुत्र प्राप्ति का वरदान देने के लिए प्रसिद्ध रही होंगी। क्योंकि तत्कालीन सप्त-मातृकाओं को उपलब्ध मूत्तियों में प्रत्येक माता के साथ एक बच्चे को भी मूर्ति प्राप्त होती है । एलोरा की १४वीं गुफा की दक्षिणी दीवाल एवं धारवाड़ जिले के हावेरी का सिद्धेश्वर मंदिर सप्त-मातृकाओं की मूत्तियों के लिए दर्शनीय है।
इसके अतिरिक्त कुवलयमाला में दिधि, सरस्वती, सावित्री, श्री (२३४.१९) देवियों का और उल्लेख मिलता है, जिनका सम्बन्ध वैदिकधर्म से अधिक रहा है । यद्यपि सरस्वती और श्री जैनधर्म में भी देवियों के रूप में स्वीकृत हैं । इन देवी-देवताओं के लिए उस समय अनेक पूजागृह भी निर्मित हो गये थे।
धार्मिक मठ-उद्द्योतन ने एक धार्मिक मठ का वर्णन कुवलयमाला में किया है । शाम होते ही अनेक तरह के शब्द होने लगे। मन्त्र-यज्ञ मंडपों में हवन में तिल, घी, समिधा की आहूति देने से तड-तड का शब्द हो रहा था (८२.३१) । ब्राह्मणशालाओं में वेद के गंभीर पठन-पाठन का शब्द हो रहा था (३२) । रुद्र भवनों में मनोहर, चित्ताकर्षक गीत गाये जा रहे थे। धम्मियमठों में गला फाड़ कर लोग चिल्ला रहे थे (३२) । कापालिकगृहों में घंटा और डमरू बजायी जा रही थी। चत्वरशिवमंडप में तोडहिया वाद्य फूंका जा रहा था (३३) । अवसथों (पाठशालाओं) में भगवद्गीता का पाठ हो रहा था (८२.३३)। जिनघरों (जैनमंदिरों) में सद्भूत गुणों का बखान करने वाले स्तोत्रों द्वारा स्तुति हो रही थी (८३.१) । बौद्धविहारों में एकान्त करुणा से युक्त अर्थगर्भित वचनों का पारायण हो रहा था । दुर्गागृहों में बड़े-बड़े घण्टे बज रहे थे। (१) । कार्तिकेय गृहों में मोर, मुर्गा एवं चटकों का शब्द हो रहा था तथा ऊँचे देवगृहों में (कामदेवभवन) मनहर कामनियों के गीत एवं मृदंग के स्वर निकल रहे थे (८३.२) । धार्मिक मठ के इस विवरण से स्पष्ट है कि आठवीं शताब्दी में विभिन्न धर्मों के देवी-देवताओं के स्वतन्त्र पूजागृह स्थापित हो चुके थे। १. सत्तीए पुरंदरो य णज्जइ-वही० २६.६, ओ ए पुरंदरो च्चिय जइ अच्छि
सहस्स-संकुलो होज्ज । वही २६.७. २. आराहिउं फुडं चिय रोइं जइ माइ-सत्थं पि । -कुव० १३.९. ३. भ०-अ० हि० डे०, (तृ० सं०) पृ० ८३. ४. ह०-य० इ० क०, पृ० ३९७.