Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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प्रमुख-धर्म पौराणिक धर्म
वैदिक धर्म ने गुप्तयुग में पौराणिक धर्म का स्वरूप ग्रहण कर लिया था। पुराणों के वर्णनों के आधार पर इस समय के धर्म का जो स्वरूप स्पष्ट होता है उसमें परोपकार, दान, तीर्थवन्दना, मूर्तिपूजा, ईश्वरभक्ति, विनय आदि समाविष्ट हैं । दार्शनिकता की अपेक्षा आचारमूलक धर्म को इस युग में प्रमुखता दी जाने लगी थी। उद्योतनसूरि ने राजा दृढ़वर्मन् की दीक्षा वाले प्रसंग में कुछ ऐसे धार्मिक आचार्यों के मतों को भी उपस्थित किया है, जिनका सम्बन्ध पौराणिक धर्म से है अथवा वे उससे प्रभावित हैं। उनकी संक्षिप्त जानकारी यहाँ प्रस्तुत है।
दानवादी-ब्राह्मण, श्रमण, विकल, दीन, दुखी को कुछ दान देना तथा गुरु की पूजा करना ही सभी धर्मों का सार गृहस्थ धर्म है।' प्रायः सभी धर्मों में दान की महिमा बतलायी गयी है। किन्तु जैनधर्म इसे धर्म का एक उपकरण मानता है, पूर्ण धर्म नहीं। दान देना तो दिखाई देता है, किन्तु घर में इससे जो अनन्त जीवघात होता है वह दिखायी नहीं देता। अतः केवल दान देने से इस संसार से मुक्ति नहीं हो सकती, इस कारण राजा इसे स्वीकार नहीं करता।
पूर्तधार्मिक-'कुए, तालाब खुदवाना, वापिकाओं को बंधवाना तथा प्याऊ खोलना ही परमधर्म है, जो हमारे हृदय में स्थित है। इस प्रकार के परोपकार से सम्बन्धित कार्यों को करने में धर्म की प्राप्ति वैदिकधर्म में प्रचलित थी। मान्यता का प्रचार करने वाले पूर्तधार्मिक कहलाते थे। पुरातात्विक एवं साहित्यिक उल्लेखों से पूर्तधार्मिकों की प्राचीनता सिद्ध होती है । इस धर्म के अन्तर्गत कुएं, तालाब खुदवाना, भोजन बांटना, बगीचे बनवाना एवं विभिन्न प्रकार के दान देना इत्यादि कार्यों को अधिक महत्त्व दिया जाता था। कुवलयमाला के एक प्रसंग में धन का सही उपयोग करने के लिए इन्हीं परोपकारी कार्यों को करने को कहा गया है ।" किन्तु जैनधर्म के सिद्धान्तों के अनुसार अल्पमात्र आरम्भ भी साधुओं को नहीं करना चाहिए इसलिए जैनशास्त्रों में इस प्रकार के पूर्तधर्मों की आलोचना की गयी है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं १. दिज्जई बंभण-समणे विहले दीणे य दुक्खिए किंचि ।
गुरु-पूयणं पि कीरइ सारो धम्माण गिहि-धम्मो ॥ -कुव० २०४.१५. २. जं दाणं तं दिटुं अणंत-घाओ ण पेच्छइ घरम्मि । -वही० १७.
कुव० २०५.३.
श०-रा० ए०, पृ० ३९८. ५. देसु किवणाणं, विभयसु वणीमयाणं, दक्खेसु बंभणे, कारावेसु देवउले, खाणेसु
तलाय-बंधे, बंधावेसु वावीओ, पालेसु सत्तायारे, पयत्तेसु आरोग्ग-सालाओ, उद्धरेसु दीण-विहले ति। -कुव० ६५.८, ९.