Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन इस बात का प्रमाण है । साहसी सार्थवाह-पूत्रों ने जल-थल मार्गों द्वारा न केवल भारत में, अपितु पड़ोसी देशों से भी सम्पर्क साध रखे थे। आयात-निर्यात की वस्तुओं में अश्व, गजपोत, नीलगाय, महिष आदि का सम्मिलित होना तत्कालीन यायायात के साधनों के विकास को सूचित करता है । 'सिज्झउ-जत्ता' शब्द का प्रयोग यात्रा में सकुशलता, सफलता एवं समुद्र-यात्रा तीनों के लिए प्रयुक्त होने लगा था । दूर-देशों की यात्रा करते समय पूरी तैयारी के साथ निकला जाता था। समुद्र-यात्रा के प्रसंग में एक 'पंजर-पुरुष', जलवायु-विशेषज्ञ एवं सार्थ के साथ 'आडत्तिया' (दलाल) का उद्द्योतन ने सर्वप्रथम उल्लेख किया है। 'एगारसगुणा', 'दिण्णाहत्थसण्णा', 'थोरकम्म' (विनिमय), 'समतुल' आदि तत्कालीन वाणिज्य-व्यापार में प्रचलित पारभाषिक शब्द थे। अर्थोपार्जन के लिए धातुवाद एवं स्वर्ण सिद्धि का उल्लेख भी कुवलयमाला में है। विशद्ध स्वर्ण के लिए उद्योतन ने 'जच्चसुवण्ण' कहा है, जिसे सोलहवानी या सोलमो सोना कहा जाता है।
___तक्षशिला, नालन्दा आदि परम्परागत शिक्षा केन्द्रों का उल्लेख न कर उद्द्योतन ने अपने युग के वाराणसी और विजयपुरी को शिक्षा के प्रधान केन्द्र माना है। विजयपुरी का मठ सम्पूर्ण शैक्षणिक प्रवृत्तियों से युक्त था। देश के विभिन्न भागों के छात्र यहाँ आकर अध्ययन करते थे। उनकी दैनिकचर्या आधुनिक छात्रावासों के समकक्ष थी। समाज के विशेषवर्ग द्वारा निजी विद्यागृहों को प्राथमिकता दी जा रही थी। शिक्षणीय विषयों में ७२ कलाओं के अतिरिक्त व्याकरण और दर्शनशास्त्र को प्रमुखता दी जा रही थी। उद्द्योतन ने उन्हीं कलाओं का सीखना सार्थक माना है, जिनका व्यावहारिक उपयोग भी हो । अरबों के सम्पर्क के कारण अश्वविद्या शिक्षा का विषय बन गयी थी। अश्वों की १८ जातियों में 'वोल्लाह', 'कयाह', 'सेराह' अश्वों को उत्तमकोटि का माना जाता था।
कुवलयमालाकहा को अप्रतिम उपयोगिता उसको भाषागत समृद्धि के कारण है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं पैशाचो के स्वरूप मात्र का परिचय लेखक ने नहीं दिया, अपितु ग्रन्थ में इन सबके उदाहरण भी दिये हैं। उनको जाँचने पर ज्ञात होता है कि समाज के प्रायः सभी वर्गों की बातचीत में अपभ्रंश प्रयुक्त होती थी । भाषावैज्ञानिक दृष्टि से १८ देशों (प्रान्तों) की भाषा के नमूने एक स्थान पर पहली बार इस ग्रन्थ में प्रस्तुत किये गये हैं। इस कारण कथा के पात्रों के कथोपकथनों में जो स्वाभाविकता और सजीवता आयी है, वह किसी भी साहित्य के लिए आदर्श हो सकती है। विभिन्न भाषाओं के शब्दों का इतना भण्डार संजोने वाली कुवलयमालाकहा अकेली साहित्यिक कृति है, जो प्राकृतअपभ्रश के शब्द-कोश निर्माण के लिए दुर्लभ सामग्री प्रस्तुत करती है।
उद्द्योतनसूरि ने ललितकलाओं में ताण्डव एवं लास्यनृत्य तथा नाट्यों का उल्लेख किया है । इन सन्दर्भो के अध्ययन से ज्ञात होता है कि अभिनय एवं वेश