Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan

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Page 395
________________ भारतीय दर्शन ३७५ देखना भी योग्य नहीं है।' प्रायः सभी दर्शनों में चार्वाक के उपर्युक्त मत का खण्डन किया गया है। तदनुरूप ही उद्द्योतन ने भी किया है । लोकायत दर्शन के उपर्युक्त सन्दर्भो में प्रथम सन्दर्भ में चार्वाक द्वारा पाँच महाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश) को मानना हमारे सामने एक समस्या उपस्थित करता है । अभी तक चार्वाक दर्शन को प्रगट करने वाले जितने भी सन्दर्भ या उद्धरण प्राप्त हुए हैं वे सभी यह एकमत से स्वीकार करते हैं कि चार्वाक चार महाभूत हो मानता है। आकाश को स्वीकार नहीं करता। इस सम्बन्ध में वृहस्पति का सूत्र विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वस्तुतः प्रत्यक्ष के अतिरिक्त प्रमाण को न स्वीकार करने के कारण तथा आत्मा जैसे किसी अतिभौतिक पदार्थ को न मानने से यह अत्यन्त तर्कसंगत होगा कि चार्वाक आकाश को स्वीकार न करे। जिन चारभूतों को वह मानता है उनका भी स्थल रूप ही वह स्वीकारता है, सूक्ष्म रूप नहीं। क्योंकि सूक्ष्मरूप अनुमानगम्य ही हो सकता है। ऐसी स्थिति में उद्योतनसूरि द्वारा 'आकाश' को लोकायत-दर्शन में सम्मिलित करना या तो उनकी पंचमहाभूत की धारणा के कारण भ्रान्ति हो सकती है अथवा लिपिकार का प्रमाद हो सकता है। यद्यपि इस सन्दर्भ का कोई पाठभेद उपलब्ध नहीं है। लोकायत दर्शन की उपर्युक्त विचारधारा के सम्बन्ध में वृहस्पति के निम्नांकित सूत्र द्रष्टव्य हैं २. 'पृथिव्यपस्तेजोवायुरिति तत्त्वानि'-पृथ्वी, जल, तेज, वायु ये चार तत्त्व हैं। ३. 'तत्समुदाये शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञा'-इन्हीं भूतों के संगठन को शरीर, ___ इन्द्रिय तथा विषय नाम दिया गया है। ४. 'तेभ्यश्चैतन्यम्'-इन्हीं भूतों के संगठन से चैतन्य उत्पन्न होता है। ५. 'किण्वादिभ्यो मदशक्तिवद् विज्ञानम्'-जिस प्रकार किण्व आदि अन्न के संगठन से मादक शक्ति उत्पन्न होती है, उसी प्रकार इन भूतों के संगठन से विज्ञान (चैतन्य) उत्पन्न होता है। __ जइ णत्थि कोइ जीवो को एसो जंपए इमं वयणं । मूढो णत्थिय-वाई एसो दलृ पि णवि जोग्गो ।-२०५.३३. 'Commanly Hindu thought recognizes five elements --earth water, fire, air and akasa, while the first four of these are matters of ordinary sense-experience, the last is the result of inference. The Cārvāka, because he admits only the immediate evidence of the senses, denies the last'.. ---M. Hiriyanna, Outlines of Indian Philosophy, P. 191. Oxford University Press London, 1965.

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