Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन व्यक्त किया गया है।' सोमदेव ने चित्रशिखण्डि नाम के साधुओं का उल्लेख किया है, जिसका अर्थ श्रतदेव ने सप्तर्षि किया है । सम्भवतः ये सप्तर्षि कुवलयमाला के उक्त सिद्धान्त को ही मानने वाले रहे होगें, जिससे इनका नाम चित्रशिखण्डि पड़ा होगा। महाभारत के शान्तिपर्व के नारायणीखण्ड में राजा उपचरि की कथा-प्रसंग में यह कहा गया है कि मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु एवं वशिष्ठ ये सप्तर्षि एवं आठवें स्वायम्भुव ने इस मत के शास्त्र का परमभगवत् के समक्ष प्रकाशन किया था। ये चित्रशिखण्डि इस धर्म के प्रचारक थे। इस प्रकार महाभारत काल से १० वीं शताब्दी तक चित्रशिखण्डि मत धार्मिक जगत् में प्रसिद्ध था। विधि को प्रधानता देने वाले इस सिद्धान्त का खण्डन करते हुए दृढ़वर्मन् सोचता है कि मोर की चित्रता आदि सभी कार्य कर्मों के अनुसार ही होते हैं । अतः कर्म को विधि मानना चाहिए।
नियतिवादी-'जो धार्मिक पुरुष हैं, वही हमेशा धर्मरत रहेगें तथा जो पापी है वह हमेशा पाप कर्म करता रहेगा। अतः किसी प्रकार की धार्मिक क्रिया आदि करना व्यर्थ है। इस मत का सम्बन्ध आजीवक सम्प्रदाय से है। इनके नियतिवाद की भारतीय धर्म-दर्शन के क्षेत्र में अनेक बार आलोचना हुई है। उद्योतनसूरि ने भी इनके मत के विरोध में यह आपत्ति उठायी है कि यदि एक ही जीव सभी जन्मों में धर्मरत रहे तो वही नरक में एवं वही स्वर्ग में कसे जायेगा ? फिर मुक्ति का कोई प्रयत्न ही क्यों करेगा ?
मूढपरम्परावादी- 'धर्म-अधर्म का विवेक इस पृथ्वी में किस पुरुष को हो पाता है ? अतः अन्धों की भाँति मढपरम्परा द्वारा ही यह सब धर्म रचा गया है। किन्तु राजा को यह मत स्वीकार नहीं होता क्योंकि इस संसार में धर्म, अधर्म में अन्तर करने वाले कई पुरुष अवश्य हैं। अन्यथा धर्म में प्रवजित होकर कौन दुर्द्धर-तप आदि करता है ?
कुतीथिक-जैनधर्म के अतिरिक्त अन्य मत के साधुओं को जैनग्रन्थों में कुतीथिक शब्द से अविहित किया गया है । कुतीर्थिकों में क्रोध, मान, माया, लोभ १. येन शुक्लीकृता हंसा शुकाश्च हरितीकृताः ।
मयूराश्चित्रिता येन स ते वृत्ति विधास्यति ॥ -हितोपदेश १.१८३. २. जै०-य० सा० अ०, पृ० ७७. ३. डा० भण्डारकर-वै० शै० धा० म०, पृ० ५-६. ४. कुव०, २०६.२१. ५. कुव० २०६.२३.
जइ एक्को च्चिय जीवो धम्म-रओ होइ सव्व-जम्मेसु ।
ता कीस णरय-गामी सो च्चिय सो चेय सग्गम्मि ॥-२०६.२५. ७. कु०-२०६ ३१. ८. कु०-२०६.३३.