Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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प्रमुख धर्म करने से सम्यक्त्व में अतिचार लगता है। अतः विनयवादियों का धर्म उचित नहीं है।'
पुरोहित-'हे नरवर ! ब्राह्मणों को गाय, भूमि, धन, हल आदि का जो दान करता है, वही धर्म है, जो मुझे प्रिय है। इसका सम्बन्ध ब्राह्मण धर्म से है, जिसके पुरोहित अपने यजमानों से इस प्रकार की चीजें दान में लेते रहते थे। ग्रन्थ में चंडसोम की कथा में भी ब्राह्मणों को सब कुछ दान करने को कहा गया है (पृ० ४८) । किन्तु दान में देने वालो ये सभी वस्तुएं जीववध में सहायक हैं। अतः इनको लेने वाला एवं दान देने वाला दोनों ही अज्ञानी हैं।
ईश्वरवादी-'ईश्वर के द्वारा ही प्रेरित होकर यह लोक धर्म-अधर्म में रत होता है । अतः जो धर्म को प्राप्त करने का अधिकारी है वही प्राप्त करेगा, दूसरा नहीं। ईश्वर भक्तों के इस मत का जैनशास्त्रों में अनेक तर्कों द्वारा खण्डन किया गया है । वही तर्क उद्द्योतन उपस्थित करते हैं-उस ईश्वर का क्या नाम है, किस कारण वह लोगों को प्रेरणा देता है, तथा उसमें इष्ट-अनिष्ट विवेक क्यों उत्पन्न होता है ?
तीर्थ-वन्दना-'समुद्र, सरिता, गङ्गा एवं तीर्थस्थानों में नहाने से पाप-मल धुलकर शुद्ध हो जाता है। अतः तीर्थयात्रा ही श्रेष्ठ धर्म है। तीर्थयात्रा द्वारा पुण्य प्राप्ति की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। वैदिक धर्म के अन्तर्गत इस विचारधारा को अधिक प्रसिद्धि मिली। प्रारम्भ में तीर्थयात्रा करने में भले धर्म-साधना होती रही हो किन्तु बाद में यह एक देश-भ्रमण का साधन मात्र रह गया । यही कारण है कि न केवल जैन आचार्यों ने अपितु पुराणकारों ने भी यह कहा है किदुष्ट हृदय वाला व्यक्ति तीर्थों में स्नान कर पवित्र नहीं हो सकता, जैसे कि शराब की बोतल सौ बार धोने पर भी पवित्र नहीं होती। इंद्रियों पर पूर्ण संयम रखने वाले व्यक्ति को ही तीर्थों के दर्शन सम्भव हैं। अन्य जैन प्राचार्यों की तरह उद्द्योतनसूरि ने भो तीर्थयात्रा के स्थान आदि को अनेक सन्दर्भो में आलोचना की है । इस प्रसंग में उन्होंने एक सुन्दर उदाहरण दिया है-'जिसकी आत्मा पाप मन वाली है उसको बाह्य जल शुद्धि से क्या फायदा? यदि कुम्हार की लड़की गर्भवती है तो लुहार की लड़की के घी पीने से कुछ फायदा नहीं।' १. जुज्जइ विणओ धम्मो कीरंतो गुरुयणेसु देवेसु ।
जं पुण पाव-जणस्स वि अइयारो एस णो जुत्तो ॥ -कुव० २०५.२९.
वही०-२०५.३५. ३. देइ हलं जीयहरं पुहई जीयं च जीवियं धणं ।
अबुहो देइ हलाई अबुहो च्चिय गेण्हए ताई।-वही २०६.१.
वही० २०६.२७. ५. इट्ठाणिट्ठ-विवेगो केण व कज्जेण भण तस्स । -वही, २०६.२९. ६. वही-२०५.७.
श०-रा०ए०,१० ४०४. जइ अप्पा पाव-मणो बाहिंजल-धोवणेण किं तस्स । जं कुंभारी सूया लोहारी कि घयं पियउ॥-कुव० ४८.२७, २०५.९.