Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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मूत्ति-शिल्प
३३७ कन्याओं को भी देखता है।' यात्रा प्रारम्भ करते समय इनको देखना शुभ माना गया है (२.२८) । ललितविस्तर में इन आठ कन्याओं के नाम इस प्रकार आये हैं
१. पूर्णकुम्भ कन्या २. मयूरहस्त कन्या ३. तालवटैंक कन्या ४. गंधोदक मृगार कन्या ५. विचित्र पटलक कन्या, ६. प्रलम्बकमाला कन्या ७. रत्नभद्रालंकार कन्या तथा ८. भद्रासनकन्या ।
ये आठ दिव्य कन्याएँ बौद्ध तथा जैनधर्म में समानरूप से मांगलिक मानी जाती थीं। वास्तुकला में भी इनका अंकन होने लगा था। मथुरा में प्राप्त रेलिंग पिलर्स में इनका अंकन पाया जाता है।३ शालभंजिकाओं की मूर्तियाँ :
उद्योतनसूरि ने शालभंजिकानों का इन प्रसंगों में उल्लेख किया है। समवसरण की रचना में ऊँचे स्वर्ण निर्मित तोरणों पर मणियों से निर्मित शालभंजिकायें लक्ष्मी की शोभा प्राप्त कर रही थीं। ऋषभपुर में चोर के भवन में ऊँचे स्वर्ण के तोरणों पर श्रेष्ठ युवतियां सुशोभित हो रही थीं। शालभंजिका और लक्ष्मी की तुलना वाण ने हर्षचरित (पृ० ११४) में भी की है ।
शालभंजिकाएँ भारतीय स्थापत्य में प्राचीन समय से प्रचलित रही हैं। प्रारम्भ में फूले हुए शालवृक्षों के नीचे खड़ी होकर स्त्रियाँ उनकी डालों को झुकाकर और पुष्पों के झुग्गे तोड़कर क्रीड़ा करती थीं, जिसे शालभंजिका क्रीड़ा कहते थे। पाणिनी की अष्टाध्यायी में (६.७, ७४) इस प्रकार की क्रीड़ाओं के नाम आये हैं। वात्स्यायन की जयमंगला टीका में इनका विस्तार से वर्णन किया गया है । धीरे-धीरे क्रीड़ा की मुद्रा और उस मुद्रा में खड़ी हुई स्त्री भी शालभंजिका कही जाने लगी। और बाद में इस मुद्रा में स्थित स्त्रियों का अंकन स्थापत्य में होने लगा । सांची, भरहुत और मथुरा में तोरण, बडेरी और स्तम्भ के बीच में तिरछे शरीर से खड़ी हुई स्त्रियों के लिए तोरणशालभंजिका कहा गया है। कुषाणकाल में अश्वघोष ने इसका उल्लेख किया है। मथुरा के कुषाणकालीन वेदिका-स्तम्भों पर निर्मित इसी प्रकार की स्त्रियों को स्तम्भशालभंजिका कहा
१. 'स्वालंकृताः सभाकन्याः, द्रोणपर्व, ५८.२० २. ललितविस्तर, अध्याय ७, पृ० ७१. ३. उ०-कुद० इ०, पृ० १२२. ४. अह तुंग-कणय-तोरण-सिहरोवरि चलिर-धयवडाइल्लं ।
मणि-घडिय-मालभंजिय-सिरि-सोहं चामरिंदं सुहं ॥ -९७.२. ५. कंचण-तोरण-तुंग-वर-जुवइ-रेहिर-पयारं--२४९.१९. ६. अवलम्बय गवाक्ष पार्श्वमन्या शयिता चापविभुग्नगात्रयष्टिः ।
विरराज विलम्बिचारुहारा रचिता तोरण शालमंजिके वा ॥-बुद्ध चरित, ५-२२
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