Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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प्रमुख - धर्म
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अधर्म है, ' । ऐसा प्रतीत होता है कि इस मत के प्राचार्य मद्य-मांस द्वारा देवता की अर्चना करते रहे होंगे एवं प्रसाद के रूप में अपनी जिह्वा इंन्द्रिय की तृप्ति । सोमदेव ने इसी प्रकार के सम्प्रदायों की आलोचना करते हुए कहा कि लोग इन्द्रियलोलुपता तथा अपने स्वार्थ के कारण मांस खाते हैं । उसके साथ धर्म और आगम को व्यर्थ ही जोड़ रखा है । उद्योतन के समय ये सद्वैतवादी क्यों कहलाते थे, यह स्पष्ट नहीं होता । शायद अद्वैत के साथ द्वैत मानने के कारण इन्हें सद्वैतवादी कहा गया है जिसमें दर्शन की दृष्टि से विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत संज्ञायें आ सकती हैं । किन्तु मांस भक्षण इनके अनुयायियों द्वारा नहीं होता था । शैवपरम्परा में अद्वैतवाद के साथ द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत की परम्परा रही है । जिसमें उपासना प्रचलित होगी उसे सद्वैतवाद कहा गया है । यह सद्वैतवाद पांचरात्र परंपरा का भी प्रतीत नहीं होता, क्योंकि उसमें मांस भक्षण प्रचलित नहीं था । उसमें वासुदेव की पूजा, अभिगमन, उपादान, इज्या, स्वाध्याय एवं योग इन पांच विधियों द्वारा की जाती थी ।
कापालिक - 'धर्म में स्थित (साधु) को जो अपना एवं अपनी पत्नी का शरीर समर्पित करता है, वह साधु तैरते हुए तूंबे के समान उस व्यक्ति को इस भव-समुद्र से पार कर देता है । इस मत के आचार्य का सम्बन्ध उस समय में प्रचलित कापालिक साधुओं के धर्म से प्रतीत होता है । कापालिक सम्प्रदाय के सम्बन्ध में साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक साक्ष्यों से जो जानकारी प्राप्त होती है उससे स्पष्ट है कि वे शैव सम्प्रदाय की शाखा के साधु थे । कापालिकों का उल्लेख ललितविस्तर ( प्र०१७ ), भवभूति के मालतीमाधव ( अंक १ ), समराइच्चकहा (भव ४ ), यशस्तिलक ( उत्तरार्ध, पृ० २८१) यामुनाचार्य के आगम- प्रमाण आदि ग्रन्थों में मिलता है, जिससे उनकी धार्मिक क्रियाओं पर प्रकाश पड़ता है ।
उद्योतन ने कापालिकों का दो बार उल्लेख किया है । मित्रद्रोह का पाप कापालिक व्रत धारण करने से दूर हो सकता है । तथा महामसान में सुन्दरी अपने पति के शव की रक्षा करती हुई कापालिक बालिका सदृश दिखायी पड़ती थी । इससे स्पष्ट है कि आठवीं सदी में कापालिक मत के प्रचारक थे एवं १. लोमसहारे जिब्भिदियस्स अणुकूलमासणं फंसे । धम्माओ । वही, २५. २. लोलैन्द्रियैर्लोकमनोनुकूलैः स्वजोवनायागम एष सृष्टः ।
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- यशस्तिलक, पृ० १३०. उत्तरार्ध ।
ब्रह्मसूत्र, २.२.४२ पर शंकराचार्य की टीका.
धम्मट्टियस्स दिज्जइ णियय-कलत्तं पि अत्तणो देहं ।
तारेइ सो तरंतो अलावु - सरिसो भव-समुद्दं ॥ — कु० २०४.२७. यशस्तिलक एण्ड इंडियन कल्चर, पृ० ३५६-५७.
कउं प्रावु मित्तस्स वचणं । कावालिय-व्रत धरणे । —कुव० ६३.२२. कावालिय- बालिय व्व महा-मसाण - मज्झम्मि । - वही २२५ - ३१.