Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
View full book text
________________
३५४
कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन हैं।' स्कन्द कातिकेय की मूर्ति के हाथ में शक्ति का अंकन देखा जाता है, जो स्कन्द के शक्तिशाली होने का प्रमाण है। स्कन्द की सुन्दर मूर्ति कोटा-संग्रहालय में उपलब्ध है। सम्भवतः १०वीं सदी तक स्कन्द की प्रसिद्धि कम होने लगी थी, क्योंकि तत्कालीन साहित्य-उपमितिभवप्रपंचकथा, यशस्तिलक, बृहत्कथाकोश आदि-में स्कन्द का उल्लेख नहीं मिलता। कुवलयमाला में स्कन्द को खंद कहा गया है । सम्भवतः आगे चलकर यही खंद महाराष्ट्र का खंडोबा देवता है, जिसकी पूजा-प्रारती अभी भी की जाती है।
स्वामीकुमार स्कन्द का अपर नाम है । उद्योतन ने स्वामीकुमार का दो बार (१३.२७, २६.१२) उल्लेख किया है, जिससे ज्ञात होता है कि इसको पूजा बलि आदि देकर की जाती थी, जिसमें प्राण-संशय बना रहता था (१३.२७) । स्त्रियाँ कुवलयचन्द्र के सौंदर्य की तुलना स्वामीकुमार से करती हैं। किन्तु उसके षड्मुख होने के कारण वे कुवलय चन्द्र को ही श्रेष्ठ मानती हैं। इस समय तक षड्मुख वाले स्वामीकुमार की मूत्तियाँ भी बनने लगी थीं । उद्योतन ने एक पड्मुखालय (मंदिर) का उल्लेख किया है जिसमें सायंकाल मयूर, कुक्कुड एवं चडक का कलरव होता रहता था (८३.२)। उपर्युक्त प्रसंग में कहीं भी उद्द्योतन ने स्कन्द के तीसरे नाम कात्तिकेय का उल्लेख नहीं किया है।
गजेन्द्र-कुवलयमाला में गणेश-उपासना सम्बन्धी उल्लेख महत्त्वपूर्ण हैं। गणेश के तीन नाम-गजेन्द्र (२.१९, १४.४), विनायक (६८.१८) एवं गणाधिप (२५७.३१) कुवलय० में प्राप्त होते हैं । गजेन्द्र पार्मिक-देवता के रूप में प्रचलित था तथा उसे पुत्रप्राप्ति आदि के लिए बलि भी दी जाती थी। विनायक को संकट के समय लोग स्मरण करते थे। गणाधिप की पूजा द्वारा लोग अनेक फलों की इच्छा रखते थे। उद्योतन ने ऐसे देवताओं को सरागी कहा है। गणेश का यह गणाधिप नाम अमरकोश (स्वरादि खंड, ३८) में प्राप्त आठ नामों में से एक है।
विनायककुवलय में विनायक का उल्लेख समुद्री तूफान की विपत्ति के समय संकट-मोचन के लिए किया गया है । व्यापारी विनायक की मनौती बोलते हैं। विचरण करने वाली आत्माओं के लिए 'विनायक' शब्द का प्रयोग गणपत्य
१. को वि खंदस्स, कुव० ६८.१९. २. भटशाली, द आइकोनोग्राफी आफ बुद्धिस्ट एण्ड ब्राह्मेनिकल स्कल्पचर्स, पृ०
१४७ फलक ५७ चित्र ३(ए). ३. श०-रा०ए०, पृ० ३९२. ४. द्रष्टव्य, ज०-०आ०भा०स०, पृ० ४३२. ५. णज्जइ मुद्धत्तणेण सामिकुमारो । अण्णाए भणियं-सच्चं होज्ज कुमारो जइ ता
बहु-खंड-संघडिय-देहो। -वही० २६.१२, १३. ६. को वि विणायगस्स-उवाइय-सहस्से भणइ । —कु० ६८.१८.