Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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शिक्षा एवं साहित्य
२३७ से कुवलयमालाकहा में उल्लिखित अश्वविद्या पर नवीन प्रकाश पड़ सकता है। इस क्षेत्र में अश्ववैद्यककार श्री जयदत्त (५००० ई०), यादवप्रकाश (१०४० ई०) आचार्य हेमचन्द्र (१०८८-११७२ ई०) एवं सोमेश्वर (११३० ई०) के ग्रन्थों का अध्ययन पर्याप्त सहायक होगा। क्योंकि यह समय ऐसा था जव फारसी और अरबी घोड़ों का भारत-व्यापी व्यवसाय उन्नत था। देश की सेनाओं में विदेशी अश्वों का प्राधान्य था तथा भारतीय साहित्यकार इससे अपरिचित नहीं थे।
अश्वों का प्रमाण-कुवलयचन्द्र ने अश्वों के प्रमाण, लक्षण एवं दोषों का वर्णन करते हुए कहा है कि अश्वशास्त्र के जानकार ऋषि (रिसीहि किर लक्खणण्णहिं) पूर्ण वय को प्राप्त पुरुष की अंगुलियों के नाप से अश्व के अंगों के नाप का निर्धारण करते हैं। मुख बत्तीस अंगुल, ललाट तेरह अंगुल, मस्तक और केश पाठ-आठ अंगुल, छाती चौवीस अंगुल, ऊँचाई अस्सी अंगुल और अश्व को परिधि ऊँचाई के प्रमाण से तिगुनी होनी चाहिए (२३.२५,२७)। इस प्रमाण वाले अश्व अश्वों की सभी जातियों में होते हैं। जिन राजाओं के पास इस प्रमाण वाले घोड़े होते हैं वे राज्य करते हैं और यदि दूसरों के पास हों तो उन्हें लाभ होता है (२८)।
आवर्त-अश्व के गुणों की परीक्षा करते समय सोमदेव के अनुसार ४३ वातों पर विचार करना चाहिए।' अश्वशास्त्र में भी इन्हीं गुणों की परीक्षा आवश्यक वतायी गयी है। इन ४३ गुणों में से उद्योतनसूरि ने आवर्त के सम्बन्ध में विशेष जानकारी दी है। आवर्त अश्व के शरीर पर रोमराजि का एक निश्चित प्रकार है, जिसे भौंरा-भौंरी भी कहा जाता हैं।
___ अश्व के शरीर के छिद्र एवं उपछिद्र के पास चार, ललाट में दो, छाती और मस्तक के ऊपर भी दो-दो ये कुल मिलाकर दस आवर्त प्रत्येक अश्व में होते हैं । यदि किसी अश्व में दस से कम अधिक आवर्त होते हैं तो शुभाशुभ फल देने वाले होते हैं।
अशुभ आवर्त-जिस अश्व के पेट, आँख और नासिका में आवर्त होता है, उसका स्वामी एवं बन्धुवर्ग अकारण ही क्रोधित होता है (२४.१) । जिस अश्व की भुजा एवं आँख के मध्य में प्रावर्त होता है उसका स्वामी व अश्वपालक अपनी जीविका का उपार्जन नहीं कर पाता (२४.२)। जिस अश्व की नासिका के पास आवर्त होता है उसका स्वामी अश्व पर से गिरकर मृत्यु को
१. जै०-यश० सां०, पृ० १८३. २. अश्वशास्त्र, पृ० १८, श्लोक ३.७.
दस णियमेणं एए तुयणं देव होंति आवत्ता । एतो ऊणहिया व सुहासुह-करा-विणिद्दिठ्ठा ॥–कुव० २३.३०. तुलना कीजिये-अश्वशास्त्र २५-२६, श्लोक १६-१७.