Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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चित्रकला
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भाव (१८५.१२)-कुव० में भानुकुमार कहता है कि वह रेखा, स्थान और भाव से युक्त रंग-संयोजन द्वारा श्रेष्ठ चित्रकला को जानता है-रेहाठाणयभाहिं संजुयं वण्ण-विरयणा-सारं (१८५.१२)। इनसे स्पष्ट है कि रेखा के अतिरिक्त भाव और स्थान भी चित्रकला के प्रधान गुण थे। किसी भी चित्र की उत्कृष्टता भावों की समुचित अभिव्यक्ति से ही सम्भव है। चित्र केवल यन्त्राकृति सादृश्य नहीं है। रूप का सादृश्य जब भाव के दर्पण में प्रतिबिम्बित होकर बाहर आता है तभी वह प्राणवन्त बनता है। चित्रकार पहले किसी भी वस्तु या व्यक्ति के रूप को अपने ध्यान में लाता है और मन में आये हुए उस ध्यान को आलेख द्वारा चित्र में उतारता है, तभी उत्कृष्ट चित्र बनता है। चित्रकला के इस महान सत्य को कालिदास ने भी अभिव्यक्त किया है-'मत्सादृश्यं विरहतनुना भावगम्यं लिखन्ती'-(मेघदूत २.२२)।
ठाणय (१८५.१२)-चित्रण के प्रकार या सौन्दर्य प्रगट करने की भंगिमा को स्थान कहते हैं। कोई चित्र किस कोण से सुन्दर दिखेगा, कुशल चित्रकार को इसका भी ज्ञान होना चाहिए। चित्रसूत्रम् में नौ प्रकार के स्थानों का वर्णन है'-ऋज्वागत, अनुजु, साचीकृत, अर्ध-विलोचन, पार्श्वगत, परावृत्त, पृष्ठागत, पुरावृत्त एवं समानत । शिल्परत्न में भी इन्हीं ९ स्थानों का उल्लेख है। कुव० में उल्लिखित उज्जयिनी की राजकुमारी का चित्र सम्भवतः अनृजु स्थान को ध्यान में रखकर बनाया गया था। क्योंकि उसकी चितवन इतनी तिरछी तथा तीखी थी कि शक्ति की तरह हृदय-विदारण में समर्थ थी।
माण, अंगोवंग (२३३.२२)-उद्द्योतनसूरि ने उज्जयिनी की राजकुमारी के चित्र को मानयुक्त तथा सुप्रतिष्ठित अंगोपांग वाला कहा है। चित्रसूत्रम् के अनुसार उद्योतन का यह उल्लेख प्रमाणित होता है, जिसमें कहा गया है कि व्यक्तिगत चित्रों में किसी पुरुष या स्त्री के अङ्ग, उपांग प्रमाण के अनुसार ही चित्रित होना चाहिये, हीनाधिक नहीं। अर्थात् चित्र के अङ्गों की ऊँचाई-निचाई तथा पुष्टता आदि स्पष्ट होनी चाहिए। तिलकमंजरी में चित्र की इस विशेषता को 'निम्नोन्नतविभागाः' (पृ० १६६) कहा गया है। इसकी तुलना विष्णुधर्मोत्तर पुराण में वर्णित वर्तना (शैडिंग) से की जा सकती है। पालि में इसे ही उज्जोतन कहा गया है।
दलृ (१८५.१२)-कुव० कहा में यह शब्द चित्रकला की परीक्षा करने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। भानुकुमार कहता है कि मैं चित्रकला तो जानता हो , हूँ, उसकी परीक्षा करना भी जानता हूँ-(१८५.१२) । चित्रकला का अभ्यास उसके लिए व्यसन जैसा था। अपने इस समीक्षक ज्ञान के आधार पर ही वह मुनिराज से कहता है कि पहले आप अपना चित्र दिखलाइये तब बता सकूँगा
१. नवस्थानानि रूपाणां, चित्रसूत्रम् (३९.१) ।
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