Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन स्वभाववाली (गंभीर सहावो परिहयो धरिणिो व, ११७.३) कहा है। इससे ज्ञात होता है कि परिखा नगर की सुरक्षा के लिए गहरी बनायी जाती थी तथा उसमें जल भरा होता था । पुरन्दरदत्त ने पाताल सदृश जल से भरी गहरी परिखा को तैरकर पार किया था (८७.१२)।
प्राचीन समय में नगर सुरक्षा के दो साधन थे—प्राकृतिक तथा कृत्रिम साधन कृत्रिम साधनों में राजभवन या नगर के चारों ओर परिखा का निर्माण किया जाता था। परिखा की गहराई लगभग १५ फुट होती थी। परिखा तीन प्रकार की बनती थीं-जलपरिखा, पंकपरिखा, रिक्तपरिखा। उद्द्योतन ने जलपरिखा का ही उल्लेख किया है। जातकों में इसे उदकपरिखा कहा गया है। कमल एव पुष्पों से युक्त होने के कारण कुवलयमाला में उल्लिखित यह परिखा वही है, जिसे कौटिल्य ने 'पद्मवतीपरिखा' कहा है ।
प्राकार---उद्द्योतन ने स्वर्ण एवं मणिरत्नों से निर्मित प्राकारों का उल्लेख किया है (६४.३३, ६६.३२, ११७.३ अादि)। जयश्री नगरी का प्राकार उसकी करधनी सदश था (१०४.९) तथा विजयपुरी का प्राकार वलय की भाँति उसे घेरे हुए था (१४६.२१)। ये उल्लेख प्रस्तर प्राकारों के साहित्यिक रूप हैं। प्राकार अत्यन्त ऊँचे बनाये जाते थे ताकि शत्रु उन्हें पार न कर सकें।" पुरन्दरदत्त को रात्रि में वाह्य उद्यान में जाने के लिए अपने नगर के ऊँचे प्राकार को लाँधना वड़ा कठिन था। क्योंकि वह प्राकार देवताओं द्वारा भी अलंघ्य था (८७.१२)। प्राचीन नगर सनिवेश में प्राकार नगर की सुरक्षा का अन्यतम साधन समझा जाता था। यही कारण है कि प्राचीन भारत के सभी विशिष्ट नगरों का वर्णन प्राकारयुक्त मिलता है। सम्भवत: ८वीं सदी की राजनैतिक अस्थिरता के कारण प्राकार की ऊँचाई और अधिक रखी जाने लगी होगी।
अट्टालक-उद्योतन ने कोशाम्बी नगरी के वर्णन में तुंग अट्टालक : (३१.१६) का उल्लेख किया है । प्राकारों के ऊार जो बुर्ज वनाये जाते थे उन्हें प्राचीन ग्रन्थों में अट्टालक कहा गया है। ये अट्टालक नगर-प्राकार के चारों दिशाओं में बनते थे । अट्टालकों की ऊँचाई के कारण ही उद्द्योतन ने उन्हें तुंग अट्टालक कहा है। अर्थशास्त्र में (पृ० ५२) अट्टालकों तक सोपान बनाये जाने का उल्लेख है । इन अट्टालकों पर सैनिक तैनात रहते थे।
१. अर्थशास्त्र, खण्ड १, पृ० ३१. २. अ०-पा० भा०, पृ० १४४. ३. रा०-प्रा० न०,१० २४२. ४. अ० शा०-पृ० ५१. ५. शुक्रनीतिसार, अध्याय १, पंक्ति ७४४, दत्त-'टाउन प्लैनिंग इन एंशिएष्ट
इण्डिया', पृ० ८७. ६. अय्या, 'टाउन प्लैनिग इन एंशिएण्ट डेकन', पृ० ३८. ७. अ० शा०, पृ० ५२. ८. रा०-प्रा० न०, पृ० २४८.