Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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नगर स्थापत्य
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गोपुर-नगर के प्राकार द्वारयुक्त होते थे ।' नगर के मुख्यद्वार को हो गोपुर कहा गया है । उद्योतन ने भी प्राकारों की शोभा गोपुरद्वार को कहा है (१२४.३०) । गोपुर अत्यन्त ऊँचे बनते थे (५०.१९, ५६.२६) । सुरक्षा की दृष्टि से गोपुरद्वार में मजबूत कपाट लगे होते थे। उद्द्योतन ने मणिनिर्मित कपाट का उल्लेख किया है-गोउरकवाडमणि-संपुड (१४९.२२)। ये दरवाजे निश्चित समय पर खुलते तथा बन्द होते थे। पुरन्दरदत्त को रात्रि में गोपुरद्वार बन्द होने के कारण प्राकार लाँधकर बाहर जाना पड़ता है (८७.१२)। इसके अतिरिक्त उद्योतन ने नगर के अन्य सन्निवेशों के साथ गोपुर का कई बार उल्लेख किया है-(१५६.५, २०३.१०, २४६.३२ आदि)। वर्तमान में जयपुर नगर के विभिन्न द्वार (अजमेरी गेट आदि) प्राचीन गोपुरों की याद दिलाते हैं ।
रक्षामुख-उद्द्योतन ने गोपुरों में रक्षामुख का उल्लेख किया हैरच्छामुह-गोउरेसु (१५६.५), (२४७.२२)। कुवलयचन्द्र के अभिषेक के समय रक्षामुखों को सजाया गया था-(१९९.२८)। ज्ञात होता है कि प्राचीन समय में गोपुर के अतिरिक्त जो गौण नगरद्वार होते थे, जिन्हें प्रतोली कहा जाता था।" उद्योतन ने उन्हें ही रक्षामख कहा है। प्रतोली के समीप सैनिक नियुक्त किये जाते थे, ताकि शत्रु नगर में न घुस सकें। रक्षा के इस प्रवन्ध के कारण ही उन्हें रक्षामुख भी कहा जाने लगा होगा। उद्द्योतन ने अन्यत्र रच्छा-चउक्क (५८.३२) का भो उल्लेख किया है। ये रक्षाचौक उस समय के पुलिस थाने थे। गुप्त प्रशासन में इन्हें 'गुप्तस्थान' कहा गया है। वस्तुपाल एवं तेजपाल के अभिलेखों में इन्हें रक्षाचतुष्क ही कहा गया है । मुगलकाल में भी इनका अस्तित्व था। आधुनिक हिन्दी में चौकी या थाना शब्द इनके लिए प्रयुक्त होता है ।
राजमार्ग-प्राचीन नगर सन्निवेश में गोपुर के बाद राजमार्ग बने होते थे। प्राचीन ग्रन्थों में इन्हें राजपथ तथा महारथ्या' भी कहा गया है । उद्द्योतन ने इन्हें राजपथ तथा राजमार्ग कहा है। कुवलयचन्द्र के अभिषेक के समय राजपथ सुगन्धित जल से सींचे गये थे (१९९.२६) । नगर में प्रवेश करते हए कुमार क्रमशः राजमार्ग को छोड़कर राजद्वार पर पहुँचा ।° राजमार्ग नगर के विस्तार के अनुसार चौड़े बनाये जाते थे।११ उद्योतन ने सम्भवतः राजमार्गों
१. अ० शा०, पृ० ५३. २. पुरद्वारं तु गोपुरम्-अमरकोष, पृ० ७७, द्र०, शु०-भा० स्था०, पृ०१०५.
कपाटा : सर्वद्वारेषु-अपराजित-पृच्छा, पृ० १७३. ४. मेक्रिण्डिल, मेगस्थनीज एण्ड एरियन, पृ० ६६. ५. अ० शा०, पृ० ५३ एवं द्रष्टव्य, शु०-भा० स्था०, पृ० १०६-७.
हरिवंशपुराण, अध्याय ५४.
उ०-कुव० इ०, पृ० ११७. ८. विष्णुसंहिता, अध्याय ७२, पंक्ति ७८. ९. समरांगणसूत्रधार, पृ० ३९. १०. कमेण य वोलीणो कुमारो रायमग्गं, संपत्तं रायदारं, (२००.३) । ११. द्रष्टव्य-रा०-प्रा० न० पू० २५४.