Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन वाह्याली को पोलो का मैदान स्वीकार करने के पक्ष में जिनसेन (८वीं) के आदिपुराण एवं मानसोल्लास के सन्दर्भ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें जो वर्णन प्राप्त हैं, उनसे निम्नोक्त प्रमुख सूचनाएँ मिलती हैं :
१. यह सौ धनुष लम्बा और उतना ही चौड़ा समतल मैदान होता था। २. उसके मध्य में दर्शकों के लिए आलोक-मंदिर (दर्शक-कक्ष) बना होता था। ३. अश्व-क्रीडा के समय अश्वारोही दो भागों में आठ-आठ की संख्या में
विभक्त हो जाते थे। ४. मैदान में दोनों छोरों पर एक-एक तोरण (गोल करने का स्थान) होता
था, जिनमें से गेंद निकाली जाती थी। ५. अश्वारोही अपनी गेद्दिका से गेंद को उछालते थे।' ६. जो अश्वारोही विना जमीन पर गिराये हुए गेंद को आकाश से लाकर
तोरण से निकाल लेता था, वही या उसका पक्ष विजयी समझा
जाता था। विपणिमार्ग
उद्द्योतन ने विपणिमार्ग का इन प्रसंगों में उल्लेख किया है। विनीता नगरी के विपणिमार्ग का विस्तृत वर्णन (पृ० ७.२६, ८.१.५) है । कुमार का अश्व विपणिमार्ग जैसा मान-प्रमाण युक्त था। अश्व पर चढ़कर कुवलयचन्द्र राजमार्ग से गुजरकर विपणिमार्ग में आया, जहाँ अनेक दिशाओं के देशी बनिये अनेक प्रकार की वस्तुओं को फैलाकर कोलाहल कर रहे थे। सागरदत्त पूंजी लेकर जयश्री नगरी के विपणिमार्ग में प्रविष्ट हुआ (१०५.७)। कुवलयचन्द्र ने एक सार्थ को देखा जो विपणिमार्ग जैसा अनेक बनियों से भरा हुआ था (१३५.१)। कुमार विजयपुरी नगरी में घुसते ही हाटमार्ग में जा पहुँचा (१५२.२२) । मुनि ने कुमार को चित्रपट में लिखे हुए चम्पापुरी के विपणिमार्ग को दिखाया, जो धन-धान्य से युक्त था (१९०.२६)। उज्जयिनी की राजकुमारी का चित्र विपणिमार्ग जैसा मानयुक्त था (२३३.२२) ।
विपणिमार्ग का उक्त विवरण प्राचीन भारतीय वाणिज्य एवं व्यापार की दृष्टि से जितना महत्त्व का है, उतना ही स्थापत्य की दृष्टि से। यह नगरविन्यास का एक अभिन्न अंग था। इसके आकार-प्रकार का संतुलन इतना निश्चित था कि उसकी उपमा चित्र के आकार-प्रकार के सन्तुलन से दी जा सकती थी। हर्षचरित (पृ० १५३) के वर्णन से भी ज्ञात होता है कि विपणिमार्ग १. मानसोल्लास, ४.४.८००, ८२७.
द्रष्टव्य, शा०-आ० भा०, पृ० २४४.४६. ३. विवणि-मग्गु-जइसएण माणप्पमाण-जुत्तेण मुहेण । -२३.१७.
कुमारो वोलीणो राय-मग्गाओ-कमेणं संपत्तो विवणि-मग्गं अणेय-दिसा-देसवणिय-णाणाविह-पणिय-पसारयाबद्ध-कोलाहलं-२६.२७-२८.