Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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राजप्रासाद स्थापत्य
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३. नगरी का गोपुर द्वार (१५२.१९) ४. हाटमार्ग (विपणिमार्ग) (१५२.२२) ५. राजांगण (राज्य द्वार के बाहर का स्थान) (१५३.१९, २०) ६. अन्तःपुर का वाह्यद्वार ।'
प्रस्तुत वर्णन में कुमार का राजांगण से राजमहल में प्रवेश पागल हाथी की भगदौड़ के बीच हुआ है। अतः राजद्वार में सआज्ञा प्रवेश, एवं बाह्य आस्थानमण्डप का वर्णन बीच में छूट गया है। उसके बाद अन्तःपुर आता है। किन्तु अन्यत्र उद्योतनसूरि ने सिंहद्वार (३२.३२, २००.३) एवं बाह्य-आस्थानमण्डप का उल्लेख किया है। जिससे ज्ञात होता है कि उनके समक्ष प्राचीन भारतीय राजप्रासाद के स्थापत्य का चित्र स्पष्ट था। बाहयाली
उद्द्योतन ने राजप्रासाद स्थापत्य-निर्माण के क्रम में विपणिमार्ग के बाद बाह्याली का उल्लेख किया है। कुवलयचन्द्र आदि अश्वों पर चढ़कर विपणिमार्ग के बाद वाह्याली में पहुँचे (२६.२८)। घोड़ों को दौड़ाने का लम्बा-चौड़ा मैदान उस समय वाह्याली कहा जाता था, जो सज्जनमैत्री के समान सपाट (लम्बा) था-दोहं सज्जण-मेत्ति व्व वाहियालि पलोएइ (२६.३०)। यह वाह्याली स्कन्धवार के द्वार से बाहर होनी चहिए, क्योंकि स्कन्धवार के प्रवेशद्वार में हाथियों और घोड़ों के ठहरने के स्थान का उल्लेख तो वाण ने किया है, किन्तु उनके मैदान का नहीं। दूसरे, वाह्याली में पहुँचने के बाद राजा और कुमार अन्य साथियों को वहीं रोक देते हैं ।३ स्वयं आगे बढ़ जाते हैं, जहाँ से कुमार का घोड़ा आकाश में उड़ जाता है। अत: वाह्याली की स्थिति नगर से बाहर ही प्रतीत होती है।
वाह्यालो को मोतियर विलियम ने भी घोड़ों के दौड़ने का मैदान कहा है। प्राचीन साहित्य में इसके और भी उल्लेख प्राप्त हैं। अलंकारविशिनी में एक अन्य प्रसंग में वाह्याली का उल्लेख है। इसको पहिचान करते हुए डा० रेवाप्रसाद द्विवेदी ने इसे अश्वक्रीडा का मैदान स्वीकार किया है। साथ ही उनका सुझाव है कि यह मैंदान अाधुनिक 'पोलो' नामक खेल के लिए प्रयुक्त होता रहा होगा। इस मन्तव्य को स्वीकार करने में अभी वाह्याली एवं पोलो की भाषा की दृष्टि से समानता तथा पोलो को भारतीय खेल सिद्ध करना आदि समस्याओं पर ऊहापोह की आवश्यकता है। १. सअंतेउरो आरूढो भवण-णिज्जूहए दळु पयत्तो(१५४.१८).
कुव० ११.१५, ५०.३१ आदि । दठ्ठण य वाहियालि धरियं एक्कम्मि पसे सयल-बलं ।-वही २६.३१. आदिपुराण--जिनसेन, (३७.४७), मानसोल्लास, ४.३, ३३०, ४.४, ७९७. आदि । परिशिष्टपर्वन् (हेम०) एवं राजतरंगिणी में भी द्रष्टव्य-मोनियरविलियम । डा० रामचन्द्र द्विवेदी से परामर्श करने के आधार पर।