Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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चित्रकला
३०३ को गाथाओं द्वारा समझाया जाता है। चित्र समझाने के लिए पद्यों का प्रयोग इसलिए होता है ताकि पीढ़ी-दर-पीढ़ी इन चित्रों का प्रदर्शन होता रहे और नया प्रदर्शक पद्यों को कंठस्थ कर दर्शकों को चित्र समझाता रहे। राजस्थान में अनेक ऐसे पड़ प्रचलित हैं, जिनके प्रदर्शक गा-गाकर उन्हें दर्शकों को समझाते हैं।
कुवलयमाला का 'भवचक्र' नामक पटचित्र इस बात का भी संकेत करता है कि प्राचीन समय में धर्म प्रचार के लिए चित्रों का बहुविध उपयोग होता था। क्योंकि जहाँ प्रचारक की भाषा जनता नहीं समझती थी, वहाँ चित्रों की अभिव्यक्ति ही भावों की व्याख्या करने में समर्थ होती थी। इसके लिए पटचित्र अधिक उपयोगी साबित हुए। क्योंकि वे मोड़कर आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाये जा सकते थे। धनपाल ने इस प्रकार के पटचित्रों का उल्लेख किया है। धार्मिक पटचित्रों की परम्परा तिब्बत में भी रही है, जिनका मूल आधार भारतीय बौद्ध पट-चित्र थे। इन तिब्बती धार्मिक चित्रों को 'टंक' कहा जाता था।
कथात्मक पटचित्र-व्यक्तिगत एवं धार्मिक चित्रों के अतिरिक्त वस्त्रों पर कुछ ऐसे चित्र भी बनाये जाते थे जिनका सम्बन्ध किसी न किसी कथा अथवा कथांश से होता था। यह कथा महापुरुषों के जीवन से भी सम्बन्धित हो सकती थी, एक साधारण लोक कथा भी। कुव० में उल्लिखित दो वाणिकपुत्रों की कथा प्राचीन भारत में कथात्मक पटचित्र कला का प्रतिनिधित्व करती है। इसका विकसित रूप राजस्थान की पाबू जी की पड़, देवनारायण की पड़ आदि में तथा बंगाल के पटचित्रों की कथाओं में प्राप्त होता है। कथा के अनरूप ही इन पटचित्रों का नाम रख दिया जाता था। यथा-सच्चरित्तपट, कामदेवपट, लक्ष्मीपट, पाबु जी की पड़ आदि । प्रायः कथात्मक पटचित्र जीविकोपार्जन के साधन के रूप में अधिक प्रचलित रहे हैं। प्राचीन भारतीय चित्रकला के परिभाषिक शब्द
उद्द्योतनसूरि ने कुवलयमालाकहा के उपर्युक्त विवरण में अनेक ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है, जो भारतीय चित्रकला में प्रायः प्रयुक्त होते रहे हैं। समय-समय पर कई नये शब्द जुड़ते रहे हैं। इस दृष्टि से कुव० में प्रयुक्त निम्न शब्द विचारणीय हैं
१. पर्सी ब्राउन, इंडियन पेंटिंग, पृ० २६. २. द्रष्टव्य, लेखक का 'पट-चित्रावली की लोक-परम्परा' नामक लेख,
राजस्थान भारती, भाग १२, अंक ३-४. ३. तिलकमंजरी, पृ० १६५. ४. ज० ई० एस० जुकेर,-'पैंटिंग आफ द लामाज्'
इलस्ट्रड वीकली आफ इंडिया, २० मई, ७३ ५. द्रष्टव्य, लेखक का उपर्युक्त लेख । ६. सम्मेलन-पत्रिका, कला अंक, पृ० ९९.