Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन
चित्तर- दारओ (२३३. ७) - प्राचीन भारतीय साहित्य में चित्रकार के लिए अनेक शब्द प्रयुक्त हुए हैं :- शिल्पी, निपुण चित्रकार, चित्राचार्य, चित्रविद्धोपाध्याय, चित्रकर, वर्णाट, रंगाजीव, रूपदक्ष आदि । किन्तु चित्रकार के लिए चित्तयरदारो ( चित्रकार का पुत्र) शब्द का प्रयोग उद्योतन ने संभवत: प्रथम बार किया है | प्रतीत होता है कि यह शब्द उस चित्रकार के लिए प्रयुक्त होता रहा होगा जो नायक-नायिका के चित्र बनाकर एक दूसरे के पास पहुँचाता रहा होगा। यह कार्य उसके लिए जीविका का साधन रहा होगा । सम्भवत: बड़े चित्रकारों के पुत्र अथवा युवक चित्रकार इस कार्य को करते रहे होंगे । अतः उन्हें चित्रदारक कहा जाने लगा होगा ।
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चित्तला जुत्ती, चित्तकुसलो, चित्तकला-कुसलो (२३३.२४) - इन तीनों शब्दों का अभिप्राय चित्रकला में अत्यन्त निपुण चित्रकार से है, जिसे आजकल मास्टर पेन्टर कहते हैं । प्राचीन समय में इसे चित्राचार्य' तथा निपुणचित्रकार कहा जाता था । उद्द्योतनसूरि ने ऐसे चित्रकार की तुलना प्रजापति से की हैचित्त-कला-कुसलेणं लिहिया णूणं पयावइणा ।
चित्तपुत्तलिया (२३३.८ ) -- उद्योतन ने नायिका के हूबहू चित्र को चित्र-पुत्तलिया कहा है । हू-बहू चित्रों को प्रतिकृति, सादृश्य, प्रतिछन्दक एवं विद्धचित्र भी कहा था । हर्षचरित ( पृ० १६५ ) तथा तिलकमंजरी ( पृ० १६२ ) में भी चित्रपुत्रिका शब्द का प्रयोग हुआ है । उदयसुन्दरी कथा में ( पृ० ९६ ) इसी hat doपुत्रिका कहा गया है ।
रेहा, वण्ण, वत्तिणी - विरयणं (१८५.१२) - रेखा, रंग एवं लिखावट प्राचीन चित्रकला में प्रचलित परिभाषिक शब्द थे । किसी भी अच्छे चित्र के रेखा, वर्ण और लिखावट ( वर्तनी) प्राण होते हैं । चित्रसूत्रम् में मार्कण्डेय ने यह बात कही है
रेखा च वर्तना चैव भूषणं वर्णमेव च ।
विज्ञेया मनुजश्रेष्ठ चित्रकर्मसु भूषणम् ।।४१.१०
उज्जयिनी की राजकुमारी के चित्र में विशुद्ध रेखा, सुविभक्त रंगसंयोजन एवं स्पष्ट लिखावट होने के कारण ही वह इतना आकर्षक था कि कामगजेन्द्र उसे देखते ही चकित रह गया । यही स्थिति द्रौपदी के 'शम्बरकर्षण- चित्रपट' को देखकर दुर्योधन की हुई थी । दूतवाक्यं में उसके उद्गार हैं - ग्रहो प्रस्य वर्णा यता, श्रहो भावोपपन्नता, ग्रहो युक्तलेखता। इससे ज्ञात होता है कि रेखा, वर्ण और लिखावट को प्रथम शताब्दी में ही किसी अच्छे चित्र के गुण माना जाता था और आठवीं सदी तक इस स्थापना में कोई कमी नहीं आयी थी । ४
१. मालविकाग्निमित्र नाटक, अंक प्रथम ।
२.
तिलकमंजरी - धनपाल ।
३. दट्ठूण इमं रूवं तइउ च्चिय विलिहियं एत्थ - २३३.१९
४. द्रष्टव्य, शु० - भा० स्था०, पृ० ५५४-६०.