Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन
(७) लक्षण एवं ( ८ ) स्वप्न । इनमें से कुवलयमालाकहा में सातवें लक्षणनिमित्त एवं आठवें स्वप्न-निमित्त का वर्णन हुआ है ।
लक्षण - निमित्त (सामुद्रिक विद्या) - स्वस्तिक, कलश, शंख, चक्र आदि चिह्नों के द्वारा एवं हस्त, मस्तक और पादतल की रेखाओं द्वारा शुभाशुभ का निरूपण करना लक्षण निमित्त है । इसे सामुद्रिक विद्या भी कहते हैं ।
कुव० में लगभग ३६ गाथात्रों में सामुद्रिक विद्या का वर्णन हुआ है ।" विजयपुरी को जाते समय कुमार कुवलयचन्द्र की वनसुन्दरी ऐणका से भेंट होती है | वहां शबर दम्पत्ति के दर्शन कर कुवलयचन्द्र शारीरिक लक्षणों के आधार पर उनके असली स्वरूप को पहिचान जाता है । ऐणिका के आग्रह पर वह संक्षेप में सामुद्रिक विद्या का विवेचन करता है । तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से उस सामग्री की संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है ।
पूर्वकृत कर्मों के अनुसार शरीर को जैसे सुख-दुख की अनुभूति होती है, वैसे ही शरीर के लक्षण भी सुख-दुख के पारिचायक होते हैं । अंग, उपांग और अंगोपांग में ये लक्षण पाये जाते हैं । इनके फल विभिन्न प्रकार के होते हैं । यहाँ पुरुष के कुछ शारीरिक लक्षण द्रष्टव्य हैं ।
पाद- लक्षण - जिस पुरुष के पैर का तलुवा रक्तवर्ण, चिकना और कोमल होता है, टेढ़ा नहीं होता, वह इस पृथ्वी का राजा होता है। जिसके पैर के तलुवे में चन्द्र, सूर्य, वज्र, चक्र, अंकुश, शंख व छत्र होता है और गहरी चिकनी रेखाएं होती हैं वह राजा होता है। जिसके पैर का अंगूठा गोल होता है उसकी पत्नि अनुकूल होती है । और पैर की अंगुलि के प्रमाण जिसका अंगूठा होता है उसकी दुःखी होती है । इत्यादि ।
पाद-लक्षण के वाद शारीरिक संरचना
क्रमानुसार जंघा, लिंग, वृषण, पेट, नाभि, गर्दन, ओष्ठ, दांत, जीभ, नाक, आंख, पलक, कपाल, मस्तक, कंठ, वक्षस्थल, पीठ आदि का अलग अलग सामुद्रिक वर्णन कुव० में किया गया है । सभी चिह्नों के फल बतलाये गये हैं । फिर भी इस वर्णन को संक्षेप-वर्णन ही कहा गया है । यदि पुरुष - लक्षण विस्तार से कहे जायँ तो लाखों गाथायें भी पर्याप्त नहीं होंगी । डा० नेमिचन्द्र शास्त्री के अनुसार यह विवरण वाराही संहिता के श्रध्याय ६८-६९-७० एवं बृहत्पराशरहोरा के अध्याय ७५ एवं ८१ से तुलनीय है । कुछ बाते समान हैं एवं कुछ में अन्तर है ।
१. कुव० १२९, १३०१३१, पृष्ठ.
२. एसो संखेवेणं कहिओ तुह पुरिस लक्खण विसेसो ।
जइ - वित्थरेण इच्छसि लक्खेहि वि णत्थि णिप्फत्ती ॥ -- कुव० १३१.२३.
३.
- कुव० ३० पृ० १४२, नोट पृ० १२९.
उ०