Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन और लगभग आठ माह तक अपने नाट्य एवं नृत्यों का प्रदर्शन गाँव-गाँव में घूम कर करते रहते हैं।'
चंडसोम के गांव में भी अनेक गाँवों में विचरण करती हुई एक नटमंडली आयी। गाँव के प्रधान ने नाटक-मंडली की दिखायी (पारिश्रमिक) दे दी तथा पूरे गाँव को नाटक देखने के लिए निमन्त्रित किया-तेण तस्स णडस्स पेच्छा दिण्णा, णिमंतियं च णेण सव्वं गाम-(४६.१०)। राजस्थान में भीलों के गवरीनाटय के सम्बन्ध में यही परम्परा है। गाँवों के निवासी अभिनेताओं के भोजन आदि की व्यवस्था स्वयं करते हैं तथा नाट्य-मंडली को सवा रुपया एवं नारियल भेंट करते हैं । गाँव के प्रधान ने दिन में खेती आदि के काम-काज के कारण ठीक अवसर न जानकर रात्रि के प्रथम पहर में उस नाटक को दिखाने की व्यवस्था की (४६.११, १२) । रात्रि में बच्चों के सो जाने पर तथा घर के सभी कार्य सम्पन्न हो जाने पर गीत और मृदंग की आवाज सुनते ही सभी ग्रामवासी नाटक देखने के लिए निकल पड़े। किसी के हाथ में छोटी मसालें थीं, कोई बैठने के लिए माँचे लिए था, किसी ने परों में जूते पहन रखे थे तथा कोई हाथ में लाठी लिये हुए था।
चन्द्रसोम भी नाटक देखना चाहता था, किन्तु अपनी पत्नी को किसकी देख-रेख में छोड़कर जाय, यह समस्या थी। वह अपने साथ उसे नाटक देखने ले नहीं जा सकता था। क्योंकि एक तो रंगशाला में हजारों सुन्दर युवकों की दष्टियों की वह शिकार बनती। दूसरे, चंडसोम का छोटा भाई भी नाटक देखने गया हुआ था। अतः चंडसोम अपनी वहिन श्रीसोमा के पास पत्नी को छोड़कर नाटक देखने चला जाता है। थोड़ी देर बाद श्रीसोमा भी नाटक देखने चली जाती है, किन्तु उसकी भाभी अपने पति के भय के कारण नाटक देखने नहीं जा पाती (४६.१६, २१)।
इस विवरण से स्पष्ट है कि लोकनाटयों की गाँवों में बहुत अधिक प्रसिद्धि थी। हजारों की संख्या में लोग रंगशाला में उपस्थित होते थे तथा स्त्रीपुरुष सभी इन नाटकों को देखने के लिए लालायित रहते थे। गाँवों में आज भी मनोरंजन के साधनों के प्रति यही उत्साह प्राप्त होता है।
___ चंडसोम नाटक का पूरा आनन्द नहीं ले सका। क्योंकि रंगशाला में उसके पीछे कोई जवान युगल बैठा नाटक देख रहा था। उस युवक-युवती की बातचीत सुन कर चंडसोम को यह सन्देह हुआ कि उसकी पत्नी ही अपने किसी
१. देवीलाल सामर, राजस्थानी लोकनाट्य, पृ० २८. २. तम्मि य गामे एक्कं णड-पेडयं गामाणुगामं विहरमाणं संपत्तं-४६.१०. ३. रा० लो०, पृ० ४२. ४. गहिय-दर-रुइर-लीवा अवरे वच्चंति मंचिया-हत्था ।
परिहिय-पाउय-पाया अवरे डंगा य घेतूण ॥-४६.१४.