Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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वादित्र
२९३ ताल-उद्द्योतन ने ताल का दो प्रसंगों में उल्लेख किया है। रासनृत्य में युवतियों द्वारा ताल बजाने से उनके वलय कल-कल शब्द कर रहे थे (४.२९)। स्वर्ग में गन्धर्व, ताल एवं तन्त्री का सम्मिलित मधुर शब्द हो रहा था (४३.६) ।
अग्नि द्वारा शोधित कांसधातु के वाद्य घनवाद्यों में प्रमुख हैं। इनमें ताल नामक वाद्य सर्वप्रमुख है। ताल एक प्रकार का मंजीरा ही है, किन्तु इसका आकार सामान्य मंजीरा से बड़ा होता था। शास्त्रीय संगीत में घन वाद्यों का अत्यधिक महत्त्व था क्योंकि ताल, लय आदि का संकेत वादक इन्ही से ग्रहण करते थे। ताल को धारण करने के कारण मंजीरा को प्राचीन समय में 'ताल' नाम दिया गया था।
संगीतग्रन्थों के वर्णन के अनुसार ताल दो भागों में विभाजित होता है। एक डोरी के माध्यम दोनों भाग परस्पर जुड़े होते हैं। इन दोनों भागों को इस प्रकार बजाया जाता है, जिससे इनकी ध्वनि मधुर लगे (सं० र० ६,११७७)। आजकल देहातों में रामधुन आदि के अवसरों पर मंजीरे बजाने का काफी प्रचलन है, जो ताल के संक्षिप्त रूप में होते हैं।
___ उपर्युक्त वाद्यों के अतिरिक्त उद्योतन ने कुव० में गन्धर्व (४३.६, तोडहिया (८२.३३), नाद (६.२४), मंगल (६७.६ आदि), वज्जिर (९६.१२) तथा वन्वीसक, मन (२६.१७) वाद्यों का उल्लेख किया है। संगीतग्रन्थों के अध्ययन से इन पर विशेष प्रकाश पड़ सकता है। सम्भव है, तोडहिया, बज्जिर एवं वव्वीसक लोक-वाद्य रहे हों।