Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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भाषाएँ तथा बोलियाँ
२५१ ने विशेष अध्ययन प्रस्तुत किया है। अतः इस सम्बन्ध में कुछ अधिक लिखना यहाँ आवश्यक नहीं है । संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि ग्रन्थ के उक्त पैशाची भाषा के सन्दर्भ में पैशाची भाषा के जिन शब्दों का उपयोग हुआ है, प्रायः वे हेमचन्द्र द्वारा निर्धारित पेशाची भाषा के लक्षण और स्वरूप का अनुकरण करते हैं। इनके पीछे प्राकृत की पृष्ठभूमि है। अपभ्रंश के तत्त्व भी उनमें देखे जा सकते हैं । पठसि जैसे संस्कृत एवं पालि के रूप भी इनमें उपलब्ध हैं। पालि एवं पैशाची की साम्यता को इससे बल मिल सकता है ।
पैशाची भाषा के ये सन्दर्भ इस बात का भी संकेत करते हैं कि उस समय के समाज में प्रायः सभी वर्गों के लोग (ग्रामीण एवं वेदपाठी विद्यार्थी भी) बोलचाल की भाषा में व्याकरण के नियमों से रहित विभिन्न भाषाओं के शब्दों का प्रयोग करते थे । ग्रन्थ में उपर्युक्त प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रश एवं पैशाची के अतिरिक्त अन्य देशी भाषाओं के भी उल्लेख मिलते हैं।
दक्षिण भारत की भाषा-ग्रन्थ में यत्र-तत्र दक्षिण भारत की भाषाओं के उल्लेख मिलते हैं। उत्तर भारत के व्यापारी दक्षिण-भारत के प्रमुख व्यापारिक केन्द्रों में व्यापार करने जाते थे। वे वहाँ की भाषाओं को समझने का ज्ञान रखते थे। कुवलयचन्द्र जब विजयापुरी की तरफ गया तो उसने ऐसी अनेक देशी भाषाओं को बोल कर काम चलाया जो सरलता से न समझी जा सकती थीं और न बोली जा सकती थीं।।
राक्षसी एवं मिश्र भाषा-इन दोनों भाषाओं का उल्लेख संस्कृत, अपभ्रश, पैशाची, मागधी के साथ हुआ है (१७५.१४) । किन्तु इनके कोई उदाहरण व लक्षण आदि नहीं दिये गये । सम्भवतः राक्षसी का अभिप्राय चूलिका-पैशाची से है तथा सभी भाषाओं का मिश्रित रूप मिश्र-भाषा है।
देशी भाषा-ग्रन्थ में देशी भाषा का अनेक बार उल्लेख हुआ है। विजयपुरी के बाजार के प्रसंग में एक साथ १८ देशों की भाषाओं के उदाहरणों सहित वहाँ के निवासियों का वर्णन किया गया है (१५२.५३) । इस प्रसंग में गोल्ल, मध्यदेश, मगध, अन्तर्वेद, कीर, ढक्का, सिन्ध, मरुभूमि, गुजरात, लाट, मालव, कर्नाटक, ताप्ति, कोशल, महाराष्ट्र, आन्ध्र, खस, पारस एवं बर्बर प्रदेशों की देशी भाषाओं के उल्लेख हैं। इन उदाहरणों एवं इस प्रसंग का विस्तृत अध्ययन श्री ए. मास्टर ने किया है।
उपयुक्त वर्णन से स्पष्ट है कि कुवलयमाला में भाषा एवं बोलियों के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी दी गयी है। देशी भाषाओं व बोलियों का इसमें खुल कर प्रयोग हुआ है। ग्रन्थ में देशी भाषाओं की इसी विविधता के कारण ही अन्त में ग्रन्थकार को यह कहना पड़ा है
१. बोलेमाणो णाणाविह देस-भासा दुलक्ख-जंपिय-व्वयाई बोलेमाणो–कुव०, १४९.४.