Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन दंतकयं-हाथीदाँत की कला। किन्तु 'दन्तरंजन' की कला भी इसका अर्थ हो सकता है। क्योंकि इसके पूर्व भागवतपुराण की व्याख्या में दन्तरंजन की कला का ८वीं कला के रूप में उल्लेख हुआ है ।'
विणियोगे-उद्द्योतनसूरि ने कला के रूप में इस शब्द का नया प्रयोग किया है। प्राचीन भारत में प्रचलित नियोग प्रथा से तो इसका सम्बन्ध नहीं हो सकता। विणिओग का अर्थ उपयोग या ज्ञान किया गया है। सम्भवतः यह विशिष्ट प्रकार के ज्ञान रखने की कला हो। किन्तु इससे उपयुक्त इसका अर्थ 'प्रशासन-कला' करना चाहिए। क्योंकि 'विणिओग' का अर्थ-आज्ञा, हुक्म आदि भी मिलता है। 'नियोजित करना' अर्थ भी प्रशासन से सम्बन्ध रखता है।
अल्लकम्म-अल्ल का शाब्दिक अर्थ कोशकार ने 'अद्दे' किया है, जिसका अर्थ दिन या दिवस भी होता है। अतः इससे हम 'दैनिकव्यवहार की कला' का भी अर्थ ग्रहण कर सकते हैं। अनुवादक ने शायद इसी अभिप्राय से इसका अर्थ 'नमस्कार को कला' किया है, किन्तु यदि 'अह' का अर्थ 'आर्द्र' किया जाय तो सहज ही उक्त कला सिंचनकर्म से सम्बन्धित हो जाती है । ३४-पुष्पविधि कला के बाद इसका उल्लेख भी 'सिंचनकर्म' का ही समर्थन करता है।
सक्खाइया-इसका अर्थ, आख्यायिका के अर्थ में कहानी लिखने या कहने की कला किया जा सकता है। अन्य ग्रन्थों में भी इसका यही अर्थ है । अनुवादक ने 'पांसा खेलने की क्रिया' इसका अर्थ किया है, जबकि द्यूतकर्म का इस प्रसंग में अलग से उल्लेख है।
कालायसकम्म-कृष्ण लोहे को आग में गलाकर उससे शस्त्र आदि बनाने की कला । आजकल लोहार जिस कार्य को करते हैं।
मालाइत्तणं-पुष्पों के हार आदि गूथने की कला । माली का कार्य ।
उपणिसयं-इसका अर्थ उपनिश्रय हो सकता है, किन्तु औपनिषदिक अर्थ करना अधिक संगत है । उपनिषद विद्या का अर्थ रहस्यविद्या है। ऐसी विद्या, जिसे गुरु अपने विशिष्ट शिष्य को ही पढ़ाते थे और जिसको गोपन रखने की शिष्य को प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी। अनुवादक ने इसका अर्थ 'मुगटनी कला' किया है जिसका अर्थ जादू-टोना भी है।
प्रोसोवणि-अवस्वापिनी-विद्या, जिसके प्रभाव से दूसरे को गाढ निद्राधीन किया जा सके। देवानन्दा ब्राह्मणी को अवस्वापिनी विद्या से सुलाकर
१. भागवतपुराण की टीका । २. अर्धमागधी कोश भाग ४, पृ० ५५२. ३. अर्धमागधीकोश भाग २, पृ० ९३६. ४. पा० म०, पृ० ७४.