Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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समुद्र-यात्राएँ
२०७ सकुशल वापस लौट आये इसके लिए शुभकामनाएँ व्यक्त की जाती थीं। ज्ञाताधर्मकथा, (८.७५) में यही भावना व्यक्त की गई है। आगे चलकर सुमात्रा के श्रीविजय के शिलालेखों में सिद्धयात्रा शब्द समुद्रयात्राके लिए प्रयुक्त पाया जाता है।
इस प्रसंग में जहाज को अपने गन्तव्य स्थान तक पहुँचने में अनुकूल वायु का चलना आवश्यक माना है। उद्योतन ने इस पवन को हृदय-इच्छित एवं अनुकूल पवन' कहा है। प्रावश्यकचूणि में इसी पवन को गजंभ कहा है, जोकि अबूहनीका के ग्रन्थ में 'हरजफ' के नाम से उल्लिखत है।
समुद्र-पार के देशों में व्यापार
धनदेव की कथा से ज्ञात होता है कि समुद्र-पार के देशों में भारतीय व्यापारी पहुँचकर क्रमशः निम्नोक्त कार्य करते थे:-(१) जहाज किनारे लगते ही सभी व्यापारी उतरते (२) विक्रीयोग्य माल को उतारते, (३) भेंट लेकर वहाँ के राजा से मिलते, (४) उसे प्रसन्नकर वहाँ व्यापार करने की अनुमति लेते, (५) निर्धारित शुल्क चुकाते, (६) अपने माल को बेचने के लिए फैलाते, (७) हाथ के इशारों द्वारा कीमत तय कर अपने माल को बेचते, (८) अपने देश को ले जानेवाला माल खरीदते तथा (९) जो उन्हें वहाँ लाभ हुअा हो उसके अनुसार वहाँ की धार्मिक संस्थाओं को दान देकर पुनः अपने देश के लिए वापस चल देते।
__ इस प्रसंग में भेंट लेकर राजा को प्रसन्न करने का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है। यह प्रथा व्यापार के लिए अनुमति प्राप्त करने की द्योतक है। न केवल तत्कालीन साहित्य में अपितु प्राचीन भारत के कला अवशेषों में भी इस प्रथा का रूप सुरक्षित है। अमरावती और अजंता के अर्धचित्रों में इसका अंकन है। अमरावती के दृश्य में राजा सिंहासन पर बैठा है। पास में चामरग्राहिणियाँ और राजमहिषी परिचारिकाओं से घिरी बैठी हैं। चित्र की अग्रभूमि में कुर्ते, पजामें, कमरबंद और बूट पहिने हुए विदेशी व्यापारी फर्स पर घुटने टेक कर राजा को भेंट दे रहे हैं। उनके दल का नेता (सार्थवाह) राजा को एक मोती का हार भेंट कर रहा है। अजंता के भित्तिचित्र में भी राजा को व्यापारियों
१. लद्धो अनुकूल पवणो (१०५.३३). २. मो०-सा०, पृ० २०२ पर उद्धत । ३. लग्गं कूले (१०६.२) उत्तिण्णा वणिया, उत्तारियाई भंडाइं (१०६ २).
गहियं दंसणीयं, दिट्ठो राया, कओ पसाओ, वट्टियं सुकं । परियलियं भंडं, दिण्णा-हत्थ-सण्णा, विक्किणीयं तं । गहियं पडिभंडं । दिण्णं दाणं, पडिणियत्ता
णियय-कूल हत्तं ।-कुव०६७.१२-१३. ४. शिवराममूर्ति, अमरावती स्कल्पचर्स इन मद्रास म्युजियम, प्लेट २०.६,
पृ० ३४,३५.