Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन
उद्योतन द्वारा प्रस्तुत यह जल यात्रा की प्रारम्भिक तैयारी अब तक के साहित्यिक सन्दर्भों में अपना विशिष्ट स्थान रखती है । उद्योतन के पूर्व ज्ञाताधर्मकथा तथा समराइच्चकहा के जलयात्रा सम्बन्धी प्रसंगों में भी एक स्थान पर कहीं इतनी सूक्ष्मता नहीं है ।' पीने के लिए जल एवं ईंधन की व्यवस्था सभी वर्णनों में समान है । १०वीं सदी तक जलयात्रा के समय इन सभी वस्तुओं की व्यवस्था करनी पड़ती थी । इससे ज्ञात होता है कि ८-१०वीं सदी तक की भारत की जहाजरानी में भले विकास हुआ हो, किन्तु समुद्री कठिनाईयाँ कम नहीं हुई थीं ।
जहाज का प्रस्थान
जलयात्रा का प्रारम्भ बड़े मांगलिक ढंग से होता था । जब निश्चित किया हुआ दिन आ जाता तो उस दिन सार्थवाह नहा-धोकर सुन्दरवस्त्र एवं अलंकार धारण करते, अपने परिजनों के साथ जहाज पर आरूढ़ होते, उनके चढ़ते ही तूर बजाया जाता, शंख फूके जाते, मंगल किये जाते, ब्राह्मण आशीष देते, गुरुजन प्रसन्नता व्यक्त करते, पत्नियाँ दुःखी हो जातीं, मित्रजन हर्ष - विषाद युक्त होते, सज्जन पुरुष मनोरथ पूर्ति की कामना करते और इस प्रकार मंगल, स्तुति एवं जय-जय की ध्वनि के साथ ही जहाज चल पड़ता । जहाज चलते ही पाल खींच दिये जाते, लंगर खोल दिये जाते, पतवार चलाना शुरू कर दिया जाता, कर्णधार ( मल्लाह ) अपने - अपने स्थान पर नियुक्त कर दिये जाते, जहाज अपने मार्ग पर ग्रा लगता तथा अनुकूल हवा के मिलते ही समुद्र की तरंगों पर उछलता हुआ आगे बढ़ जाता ।
कुव० का यह जहाज के प्रस्थान का वर्णन परम्परागत है । सागरदत्त की यात्रा के प्रसंग में प्रस्थान करने के पूर्व समुद्र - देवता की पूजा करने का उल्लेख है - पूइऊण समुद्ददेवं ( १०५.३२ ) । ज्ञाताधर्मकथा, समराइच्चकहा, एवं तिलकमंजरी में भी समुद्र देवता की पूजा का उल्लेख मिलता है । ज्ञाताधर्मकथा में इस पूजन विधि का शुद्ध लौकिक रूप देखा जा सकता है ।
उद्योतन ने लोभदेव की ६६.२८) का उल्लेख किया है शब्द बन गया था । इसके द्वारा
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यात्रा के प्रसंग में सिद्ध यात्रा (सिज्झऊ - जत्ता समुद्रयात्रा के प्रसंग में यह एक पारिभाषिक सार्थवाह की यात्रा सकुशल पूर्ण हो एवं वह
१. ज्ञाताधर्मकथा, ८, पृ० ९७ आदि समराइच्चकहा, पृ० २४०, ३९८, ५५२
आदि ।
२. तिलकमंजरी, पृ० १३१.१३९.
३. कुव० ६७.५, ८.
४. तओ पूरिओ सेयवडो, उक्खित्ताइं लंबणाई, चालियाई आवेल्लयाई, णिरूवियं कण्णहारेणं, लग्गं जाणवत्तं वत्तणीए : पवाइओ हियइच्छिओ पवणो । वही ६७.८.९.