Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
View full book text
________________
परिच्छेद चार स्थल-यात्राएँ
प्राचीन भारत में यात्रा करना निरापद नहीं था। विशेषकर व्यापारिक यात्राओं में तो अनेक भय थे । व्यापारिक मार्ग सुरक्षित न होने के कारण रास्ते में चोर डाकुओं एवं जंगली जातियों तथा जानवरों के आक्रमणों का भय बना रहता था। इस कारण व्यापारी बाहरी मंडियों के साथ व्यापार करने के लिए एक दल बनाकर चलते थे। प्राचीन वाणिज्य की शब्दावलि में व्यापारियों के इस दल को सार्थ कहा जाता था एवं सार्थ के मुखिया को सार्थवाह ।
___ कुव० में स्थल-यात्राओं के जो प्रसंग वणित हैं, उनसे सार्थवाह, सार्थ, मार्ग की कठिनाइयाँ तथा प्राचीन भारतीय स्थलमार्गों के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त होती है। सार्थवाह
अमरकोष के अनुसार 'जो पूंजी द्वारा व्यापार करनेवाले पान्थों का अगुआ हो वह सार्थवाह है ।' महाभारत में भी सार्थ के नेता को सार्थवाह कहा गया है। जातकों में इसका सत्थवाह के नाम से उल्लेख किया गया है। धार्मिक तीर्थयात्रा के लिए जैसे संघ निकलते थे और उनका नेता संघपति (संघवइ, संघवी) होता था वैसे ही व्यापारिक क्षेत्र में सार्थवाह की स्थिति थी। यात्राकाल में वह सार्थ का स्वामी होता था तथा उसका कर्तव्य होता था कि वह सार्थ की सुरक्षा करता हुआ उसे गन्तव्य स्थान तक पहुँचाए । सार्थवाह कुशल व्यापारी होने के साथ साथ अच्छा पथ-प्रदर्शक भी होता था । सार्थवाह की परम्परा काफी विकसित हुई । डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने लिखा है
१. सार्थान साधनान् सरतो वा पान्थान् वहति सार्थवाहः, अमरकोष ३-९-७८. २. अहं सार्थस्य नेता वै सार्थवाहः शुचिस्मिते ।-वनपर्व, ६१,१२२. ३. वही, सार्थस्य महतः प्रभुः ।