Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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स्थल-यात्राएँ
२१३ "भारतीय व्यापारिक जगत में जो बुद्धि के धनी, सत्य में निष्ठावान, साहस के भण्डार, व्यापारिक सूझ-बूझ में पगे, उदार, दानी, धर्म और संस्कृति में रुचि रखनेवाले, नई स्थिति का स्वागत करनेवाले, देश-विदेश की जानकारी के कोष, यवन, शक, पल्लव, रोमन, कृषिक, हूण आदि विदेशियों के साथ कन्धा रगड़नेवाले, उनकी भाषा और रीति-नीति के पारखी थे, वे भारतीय सार्थवाह थे। वे महोदधि के तट पर स्थित ताम्रलिप्ति से सीरिया की अन्ताखी नगरी तक यवद्वीप-कटाहद्वीप से चौल मण्डल के सामुद्रिक-पत्तनों और पश्चिम में यवन, वर्बर देशों तक के विशाल जल-थल पर छा गये थे।" डा० अग्रवाल के इस कथन को कुव० की एतद् विषयक सामग्री काफी पुष्ट करती है।
कुव० में ऐसे सार्थों का वर्णन है, जो जल एवं स्थलमार्ग से व्यापारिक यात्राएँ करते थे। उस समय स्थलयात्राएँ सम्भवतः दोनों प्रकार से प्रचलित थीं-सार्थ द्वारा एवं बिना सार्थ के। मायादित्य एवं स्थाणु सालिग्राम (वाराणसी) से प्रतिष्ठान तक की यात्रा अकेले ही करते हैं, जिसमें उन्हें अनेक नदी, पर्वतों एवं अटिवियों को पार करना पड़ता है। किन्तु बिना सार्थ के यात्रा करने के कारण हमेशा चोरों आदि का भय बना रहता था। इसलिए वे दोनों दूरवासीतीथिकों का वेष धारण कर वापस लौटते हैं, जिन्हें चोर परेशान न करते रहे होंगे।
सार्थ के साथ यात्रा करने के प्रसंग में कुवलयमाला के वर्णनों से निम्नोक्त बातें ज्ञात होती हैं :--
तरुण सार्थवाह-सार्थ को लेकर व्यापार करने के लिए यह आवश्यक नहीं था कि कोई वृद्ध व्यापारी ही सार्थवाह बने। किन्तु कोई उत्साही धनाढ्य तरुण भी सार्थवाह वनकर व्यापारिक यात्रा कर सकता था। तथा व्यापारिकमण्डल में भी उसका वही आदर-सत्कार होता था, जो एक वृद्ध एवं अनुभवी सार्थवाह का।
सार्थ का प्रस्थान-स्थलयात्रा प्रारम्भ करने के पूर्व अनेक तैयारियाँ करनी पड़ती थीं। दक्षिणपथ की ओर जानेवाले सार्थ में प्रथम वहाँ बेचे जाने वाले घोड़ों को तैयार किया गया, यान-वाहनों को सजाया गया, रास्ते के लिए खाद्य-सामग्री रखी गयी, दलाल (आढ़तिया) साथ में लिये गये, सार्थ का काम जानने वाले कर्मकारों को एकत्र किया गया, गुरुजनों की आशीष ली गई,
१. सार्थवाह, भूमिका । २. तत्थ अणेय-गिरि-सरिया-सय-संकुलाओ अडइओ उलंघिऊण कह कह वि पत्ता
पइट्ठाणं णाम णयरं ।-कुव० ५७.२८. ३. ते य एवं परियत्तिय वेसा अलक्खिया चोरेहिं-वही ५८.३. ४. कुव० धनदेव की कथा, ६५-६८.