Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
View full book text
________________
धातुवाद एवं सुवर्ण सिद्धि
२२३ गई और घाव भरने लगे। इस प्रकार प्रत्येक छः माह में लोभदेव का मांस और रुधिर वे समुद्र चारी निकालते थे और उससे स्वर्ण बनाते थे।
___ वासव मन्त्री के पूछने पर धर्मनन्दन मुनि ने यह भी स्पष्ट किया कि समुद्रचारियों का महाविट समुद्र के किनारे किसी विशेष जलचर को पकड़ता था (जलगोचर-संठाणो, नोट ६८.२६); फिर मधुसिंचन और गंधरोचन के द्वारा उसकी परीक्षा करता था। यदि वह उनके कार्य का होता (तओ तं पगलइ) तो फिर उसको रूधिर और मांस के द्वारा विशेष औषधि सहित साफ करता था और अन्त में हजारगुना ताँबा मिलाकर उसका स्वर्ण बना लेता था (सुव्वं सहस्सेण पाविऊण हेमं कुणइ त्ति) । डा० उपाध्ये के अनुसार वे चांदी का सोना बनाते थे। डा० अग्रवाल का कथन है कि इस प्रकार की प्रक्रिया से सोना बनानेवाले मुस्लिमयुग में 'मोमाइ' कहे जाते थे, जो यूनानी चिकित्सकों में काफी प्रसिद्ध थे।"
१. विलित्तो केण वि ओसह दन्व-जोएणं, उवसंता वेयणा, रूढं अंग-६९.२४ : २. एवं च छम्मासे छम्मासे उक्कतिय-मास-खंडो वियलिय-रुहिरो अट्ठि-सेसो
- महादुक्ख-समुद्द-मज्झ-गओ बारस संवच्छराई वसिओ। -६९.३०-३१. ३. तस्स परिक्खा मधुसित्थयं गंधरोहयं च मत्थए करिइं, ६९.२७. ४. उ०—कुव० इ०, पृ० १३८. ५. वही, पृ० १२०.