Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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कुवलयमालाकंहा का सांस्कृतिक अध्ययन
पट - सागरदत्त समुद्रतट पर किसी लड़की को बेहोश देखकर उसे कपड़े से हवा करता है ( दिण्णो पड-वाऊ, १०७.४) । कपड़े से हवा करना यह बतलाता है कि दोनों में से किसी के वस्त्र से हवा की गयी होगी । इसका अर्थ है कि उस समय उत्तरीय ( दुपट्टे ) को पट भी कहा जाता था ।
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गोष्ठि - मंडली की
( ७.२९) । यहाँ जा सकता है, जैसे
पर - वसन - अयोध्या के विपणिमार्ग में खलजनों की तरह एक दुकान में अनेक प्रकार के साधारण वस्त्र भरे थे पर-वसन का अर्थ साधारण वस्त्र प्रसंग के अनुसार ही किया खलों की गोष्ठी में सभी तरह के अच्छे-बुरे लोग एकत्र होते हैं । वैसे ही सम्भवतः इस दुकान में मोटे, रंगीन आदि सूती वस्त्र बिकते होंगे । यहाँ 'पर-वसण' श्लेषयुक्त है, जिसका दुष्टजनों के पक्ष में अन्य व्यसन अर्थ होगा ।
पोत - मानभट अपनी पत्नी के बेहोश हो जाने पर उसके चेहरे पर पानी छिड़ककर पोत से हवा करता है ।" यहाँ पोत का अर्थ मानभट का उत्तरीय वस्त्र प्रतीत होता है । पोत वस्त्रों का प्राचीन नाम है । आचारांग (२.५.१.१) तथा बृहत्कल्पभाष्यवृत्ति (२०३६६० ) में पोत्तग को जैनमुनियों के पहिनने योग्य वस्त्र बतलाया है । डा० मोतीचन्द्र ने इसे ताड़पत्र से बना हुआ कपड़ा कहा है । किन्तु आठवीं सदी में ताड़पत्र के वस्त्र युवक पहिनते थे, यह स्वीकारना कठिन है, क्योंकि इस समय तक अनेक महीन एवं सुन्दर वस्त्र बनने लगे थे । उक्त प्रसंग का अर्थ तब यह किया जा सकता है कि या तो उत्तरीय को पोत भी कहा जाता था अथवा हवा करने के लिये घरों में ताड़पत्र के पंखे होते रहे होंगे । मानभट ने उसी से हवा की होगी । किन्तु पोत को वस्त्र मानना ही उचित है । कुव० में अन्यत्र भी नहाने के अवसर पर धोयी हुई युगलपोती का उल्लेख किया गया है (१५७.३२) । डा० सांडेसरा ने भी पोती को धुला वस्त्र माना है ( वर्णकसमुच्चय, भाग २, पृ० ४६ ) | यह नहाने के वाद पहिना जाता था । कुवलयचन्द्र को नहाने के बाद परिचारिकाओं ने दो पोत्ती पहिनने को दी ( दोहं पि पोत्तीओ - १५७.३२) ।
रूमाल अथवा मफलर
फालिक - सागरदत्त ने बाहर जाते समय साटक और फालिक ये दो वस्त्र लिये । साटक उसने पहिन लिया तथा फालिक गले में बाँध लिया । इससे ज्ञात होता है कि फालिक ऐसा कोई वस्त्र था जो गले में जैसा बाँधा जाता रहा होगा। अवसर पड़ने पर उसमें कोई चीज भी बाँधी जा सकती होगी । प्राचीन भारतीय साहित्य में फालिय को स्फटिक के समान साफ और पारदर्शी कपड़ा कहा गया है । यह कीमती एवं सूक्ष्म वस्त्र रहा होगा
१. सित्ता जलेणं, वीइया पोत्तएणं । - कुव० ५३.१५.
२.
मो० प्रा० भा० वे०, पृ० १४५.
३. गहियं च एक साडयं, फालियं च । एक्कं नियंसियं, दुइयं कंठे - णिबद्ध, १०४.२. ४. आचारांग, २.५, १३.८.