Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन
लायी गयी वस्तुओं से भरा रहता था । बनियों के आवागमन से बड़ी भीड़ रहती थी तथा लेन-देन की बातचीत का कोलाहल हमेशा व्याप्त रहता था । इस प्रकार विपणिमार्ग आर्थिक समृद्धि के केन्द्र थे ।
व्यापारिक मण्डियाँ
स्थानीय व्यापार के दूसरे प्रकार के केन्द्र बड़ी-बड़ी मण्डियाँ होती थीं, जिनमें देश के प्रायः सभी भागों से व्यापारी वाणिज्य के लिए आते-जाते थे । इन मण्डियों को पैठास्थान भी कहा जाता था । पैंठास्थानों में व्यापारियों को सव प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध होती थीं । विपणिमार्ग में जो व्यापार होता था वह नगर के बड़े व्यापारियों एवं उनके साहसी पुत्रों के लिए पर्याप्त नहीं होता था । वे प्रन्यान्य व्यापारिक मण्डियों में जाकर अपने व्यापार- कौशल के द्वारा अपनी सम्पत्ति बढ़ाना चाहते थे । नये-नये स्थानों एवं व्यक्तियों से परिचित होने का लोभ भी उनके मन में होता था । अतः विभिन्न व्यापारिकमण्डियों की वणिकों द्वारा यात्रा करना प्राचीन भारत में ग्राम बात हो गई थी । इससे वणिक्पुत्रों की बुद्धि, व्यवसाय, पुण्य और पौरुष की भी परीक्षा हो जाती थी । इससे सांस्कृतिक सम्बन्ध भी बढ़ते थे ।
व्यापारिक यात्रा की तैयारी - कुवलयमाला में तक्षशिला के वणिक्पुत्र धनदेव द्वारा दक्षिणापथ में सोपारक मण्डी की यात्रा का विशद वर्णन है। ( ६५.१, २० ) । मायादित्य और स्थाणु भी दक्षिणापथ में प्रतिष्ठानमण्डी के लिए तैयारी - पूर्वक निकले थे । इन प्रसंगों से व्यापारिक यात्रा की तैयारी के सम्बन्ध में निम्नोक्त जानकारी प्राप्त होती है
१. धर्म एवं काम पुरुषार्थ को पूरा करने के लिए धन (अर्थ) कमाना प्रत्येक व्यक्ति को जरूरी है । "
२. अपने बाहुबल द्वारा अर्जित धन का सुख दूसरा ही होता है, भले घर में अपार धन हो ।
३. निज - बाहुबल द्वारा अर्जित धन से दान एवं पुण्य कार्य करना श्रेष्ठ
समझा जाता था ।
४. धन कमाने को जाते समय पिता की आज्ञा लेना आवश्यक था । "
१.
अणेय - दिसा - देस- वणिय णाणाविह पणिय-पसारयाबद्ध - कोलाहलं । - २६.२८. २. विवणिमग्गु जइसओ संचरंत वणिय-पवरू । – १३५.१.
३. कय- विक्कय-पयत्त- पवड्ढमाण- कलयल- रवं हट्ट - मग्गं । - १५२.२२.
४. विवणि मग्गो बहु-धण संवाह रमणिज्जो । – १९०.२६.
५. धम्मत्यो कामो वि - होहिइ अत्थाओ सेसं पि । - ५७.१३, १५.
६. अण्णं अपव्वं अत्यं आहरामि बाहु-बलेणं । - ६५.१०.
७. सच्चं चाई वियड्ढो य जइ णियय- दुक्खज्जियं अत्यं दिण्णं । - १०३.२१. ८. ताय, अहं तुरंगमे, घेत्तूण दक्खिणावहं वच्चामि । - ६५.६.