Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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परिच्छेद दो वाणिज्य एवं व्यापार
प्राचीन भारत में अर्थोपार्जन के साधनों में वाणिज्य को प्रमुख स्थान प्राप्त है। तत्कालीन समाज में स्थानीय एवं विदेशी दोनों प्रकार के व्यापार काफी समृद्ध थे। कुवलयमालाकहा में वाणिज्य एवं व्यापार से सम्बन्धित विविध एवं विस्तृत जानकारी उपलब्ध है, जिससे तत्कालीन आर्थिक जीवन का स्वरूप स्पष्ट होता है। स्थानीय व्यापार
__ स्थानीय व्यापार का अर्थ है, एक ही स्थान पर उत्पन्न विभिन्न वस्तुओं का स्थानीय उपयोग के लिए क्रय-विक्रय होना। स्थानीय व्यापार के प्रमुख केन्द्र दो थे :-विपणिमार्ग एवं व्यापारिक मण्डियाँ । विपणिमार्गों में फुटकर दैनिक उपयोग की वस्तुएँ बिकती थीं, जबकि व्यापारिक मण्डियों में अनेक स्थान के व्यापारी एकत्र होकर माल का थोक क्रय-विक्रय करते थे। कु. में इन दोनों प्रमुख केन्द्रों का वर्णन उपलब्ध है।
विपणिमार्ग-प्राचीन भारत में एक बाजार में ८४ प्रकार' तक की वस्तुओं की विभिन्न दुकानें होती थीं। ये दुकानें नगर के प्रसिद्ध राजमार्गों तथा चत्वरों के किनारे लगती थीं, जिन्हें हट्ट कहा जाता था। कुव० में उल्लिखित विनीता नगरी के विपणिमार्ग में विभिन्न वस्तुओं की दुकानें इस क्रम से थीं :
एक ओर कुंकुम, कर्पूर, अगरु, मृगनाभिवास, पडवास आदि सुगन्धित वस्तुओं की दुकानें थीं। दूसरी ओर की दुकानों में इलायची, लोंग, नारियल आदि १. ८४ वस्तुओं के नाम-प्राचीन गुर्जरकाव्य-संग्रह, पृ० ९५; पृथ्वीचन्द्र-चरित
(सं० ११६१). २. कुव० (७.२६, २६.२८, १३५.१, १५२.२२, १९०.२६, २३३.२२). ३. कुंकुम-कप्पुरागरु-मयणाभिवास-पडवास विच्छडाओ।-कुव० ७.२६.