Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन इसके प्राचीन रूप भी प्राप्त होते हैं। सिन्धु नदी की संस्कृति में हाथ में पकड़ने योग्य मिट्टी की जो गोलवस्तु मिली है, उसे चक्र कहा जा सकता है।' चक्र की कई जातियाँ होती रही होंगी। भगवान् विष्णु का आयुध सुदर्शन चक्र कुछ भिन्न प्रकार का है । चक्र का कला में भी अंकन पाया जाता है।
दण्ड-उद्योतन ने दण्ड का दो बार उल्लेख किया है। दण्ड गदा का ही एक अन्य रूप माना जाता है। भारतीय युद्ध प्रणाली में दण्ड का पर्याप्त प्रयोग देखने को मिलता है। भारतीय सिक्कों में गदा और दण्ड का इतना साम्य है कि उनको पृथक्-पृथक करना कठिन है।
मंडलान-यह एक प्रकार की अत्यन्त तीक्ष्ण तलवार थी। कुवलयचन्द्र एवं भिल्लपति ने इसी से युद्ध लड़ा था, किन्तु मंडलान तोड़ दिये गये थे (१३७.२४) । इसकी धार पर पानी चढ़ाया जाता था (यश०, ५६५) ।
मुद्गर-मुद्गर का प्रहार शत्रु को चूर कर देता था (१९५.२७) । चूर करने वाले अस्त्रों में मुद्गर, मुसल और घन प्रधान थे। मुद्गर का अंकन कला में भी मिलता है।
यन्त्र-यन्त्र शत्रु की सेना पर शस्त्र फेंकने वाला साधन था। इतिहास में यन्त्र प्रयोग के अनेक उदाहरण मिलते हैं । १२९९ ई. में रणथम्भोर के किला से यन्त्र द्वारा फेंके गये पत्थर की चोट से अलाउद्दीन खिलजी का सेनापति नुस्रतखान मारा गया था। ११८६.६१ ई० में एक किले को तोड़ने के लिये फ्रेन्च सेना ने यन्त्र का ही प्रयोग किया था। तोपों के उपयोग के बाद भी यन्त्रों का प्रयोग होता रहा। १४८० ई० में यूरोप में रोडसन किला के युद्ध में यन्त्रों में पत्थर भर कर फेंके गये तोपों जैसे प्रभावशाली हुए। महारीबी नाम का यन्त्र लगभग ५६ सेर वजन का पत्थर फेंकता था।" शत्रु को सेना में रोग फैला देने के लिए इन यन्त्रों द्वारा मरे हुये घोड़े या गाय आदि को भी किले के जलाशय में फेक देते थे।
वज्र (प्रशनि)-उद्योतनसूरि ने धातुवाद में असफल नरेन्द्रों की उपमा वज्र के द्वारा प्रहार किये गये व्यक्तियों से दी है-'वज्जेणेव पहया' (१९५.२७) । इससे ज्ञात होता है कि वज्र का प्रहार असहनीय होता था। प्राचीन भारतीय
१. वर्णकसमुच्च य-सांडेसरा, पृ० १०८. २. बनर्जी-वही, पृ० ३२८, फलक ७, चित्र ४.७, फलक ९ चित्र १. ३. वही, पृ० ३२९. ४. शिवराम मूर्ति-अमरावती फलक १०, चित्र १२. ५. कान्हण दे प्रबन्ध, चतुर्थखण्ड, ३५. ६. सांडेसरा-वर्णक समुच्चय, भाग २, पृ० १०८-९.