Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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परिच्छेद एक वर्ण एवं जातियाँ
वर्ण-व्यवस्था
उद्द्योतनसूरि के पूर्व प्राचीन भारत में वर्ण-व्यवस्था का स्वरूप वैदिक मान्यताओं के अनुरूप था। गुप्तयुग में सामाजिक वातावरण इस प्रकार का था कि सिद्धान्ततः कर्मणा वर्ण-व्यवस्था को माननेवाले जैन आचार्य भी श्रोत-स्मार्तमान्यताओं से प्रभावित होने लगे थे। जटासिंहनन्दि (पूर्वार्ध ७वीं अनुमानित) ने वर्ण-चतुष्टय को सिद्धान्ततः स्वीकार नहीं किया, किन्तु व्यवहार के लिए शिष्ट लोगों के द्वारा वर्ण-चतुष्टय बनाया गया है, इस बात का वे विरोध नहीं कर सके ।' रविषेणाचार्य (६७६ ई.) ने समाज में प्रचलित वर्ण-व्यवस्था को कर्म के आधार पर ऋषभदेव द्वारा किया गया विभाजन स्वीकार किया।२ जबकि जिनसेनसूरि (७८३ ई०) ने जन्मगत वर्ण-व्यवस्था को भी जैनीकरण करके स्वीकार कर लिया।
इस प्रकार के वैदिक प्रभाव के कारण स्वाभाविक है कि उद्द्योतनसूरि को भी समाज में प्रचलित वैदिक वर्ण-व्यवस्था से प्रभावित होना पड़ा हो । किन्तु उनके मन में यह बात अवश्य थी कि जन्मगत वर्ण-व्यवस्था को किसी प्रकार मिटाया जाय । अतः उन्होंने ऐसे कथानक को चुना, जिसमें सभी प्रमुख जातियों के पात्र सम्मिलित हों तथा सभी को अपने कर्मों का फल समान रूप से भोगना पड़े। इससे यह बात स्वयं स्पष्ट हो जायेगी कि जन्म की अपेक्षा कर्म ही व्यक्ति को ऊँचा-नीचा दर्जा प्रदान करने में समर्थ है। विभिन्न वर्गों को जो कार्य करते हुए वर्णित किया गया है उससे यह स्पष्ट होता है कि स्मृतियों में वर्गों का जो
१. वरांगचरित, २१-११. २. पद्मपुराण, पर्व ३, श्लोक २५५-५८. ३. महापुराण, पर्व १६, श्लोक ३४३-४६.