Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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सामाजिक संस्थाएं
१२५ अपंग व्यक्ति रहते थे तथा परदेशी, व्यापारी, तीर्थयात्री, पत्रवाहक, धार्मिक, गुग्गुलिक एवं भोगा (भोये) आदि यात्रा के दौरान उस अनाथमंडप में ठहरते थे। ऐसे अनाथ बच्चों का भी वहाँ ठिकाना था, जिनके माता-पिता उनसे रूठ गये थे।'
अनाथमंडप के इन अपंग व्यक्तियों की पारस्परिक बातचीत से ज्ञात होता है कि वे विभिन्न प्रान्तों के निवासी एवं विभिन्न भाषा-भाषी थे। उनमें अनेक धार्मिक विश्वास प्रचलित थे-कोढ़ निवारण के लिए मुल्तान की सूर्यपूजा, वाराणसी का गंगास्नान, महाकाल भट्टारक की सेवा, प्रयाग के अक्षयवट से प्रात्मबध, संगमस्नान आदि। इनका विशेष अध्ययन धार्मिक-जीवन वाले अध्याय में किया गया है।
शिवमंडप भरुकच्छ नगर के चौराहे पर स्थित था (९९.२३)। जिसमें विन्ध्यवास की असहाय रानी तारा अपने पुत्र के साथ जाकर ठहरती है। यह शिवमंडप शिवमंदिर न होकर कल्याणकारी केन्द्र होना चाहिए, जो सम्भवतः अशरण एवं असहाय व्यक्तियों के कल्याण के लिए नगर के चौराहों पर बनाया जाता होगा।
__ सत्रागार-सत्रागार का उद्योतनसूरि ने तीन बार उल्लेख किया है, जिससे ज्ञात होता है कि सत्रागार को नगर के दानी एवं श्रेष्ठी दानराशि के द्वारा चलाते थे-पालेसु सत्तायारे (६५.९)। सत्रागार में पथिकों को निःशुल्क भोजन वितरित किया जाता था। स्थाणु एवं मायादित्य तीर्थयात्री का वेषधारण कर कहीं मोल लेकर, कहीं सत्रागार में एवं कहीं उद्धरस्था में भोजन करते हुए आगे बढ़े। इससे ज्ञात होता है कि सत्रागार के समान 'उद्धरत्था' में भी पथिकों को भोजन मिलता था। इसमें जीर्णोद्धार का कार्य भी किया जाता था। 'उद्धरत्था' शब्द का संस्था के रूप में कोई अर्थ स्पष्ट नहीं होता। यदि इसका संस्कृत रूप 'ऊर्ध्वरथ्या' है तो इसका अर्थ महापथ (High way) किया जा सकता है । तब यह मानना होगा कि उस समय प्रमुख बड़े मार्गों पर पथिकों या तीर्थयात्रियों के लिए निःशुल्क भोजन की व्यवस्था होती थी।
आरोग्यशाला–आधुनिक दातव्य-औषधालय का प्राचीन नाम आरोग्यशाला था। नगर के श्रेष्ठियों द्वारा आरोग्यशालाओं को पर्याप्त धन दिया जाता
१. तत्थ ताव मिलिएल्लए कोड्डीए वलक्ख खइयए दीण दुग्गय अंधलय पंगुलय
मंदुलय-मंडहय वामणय छिण्ण-णासय तोडिय-कण्णय छिण्णोट्ठय तडिय कप्पडिय देसिय तित्थ-यत्तिय लेहाराय धम्मिय गुग्गुलिय भोया । किं च बहुणा। जो
माउ-पिउ रु?ल्लओ सो सो सव्वो वि तत्थ-मिलिएल्लओ ति-५५.११-१३. २. कहिंचि मोल्लेणं कहिंचि सत्तगारेसु कहिंचि उद्धरत्थासु भुंजमाणा, ५८.४.