Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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वस्त्रों के प्रकार
१४७ जा सकती है। चिंघाल>चिंधी (वस्त्र का टुकड़ा) का अर्थ रूमाल किया जा सकता है । अतः 'नये रंगीन वस्त्र पहिन कर उसमें रूमाल खोंसकर हर्षपूर्वक नाचना', 'णव-रंगय-चीर-बद्ध-चिधालो परितुट्ठो णच्चिस्सं' का सही अर्थ प्रतीत होता है।
चीर-उद्द्योतन ने कुवलयमाला में ६ बार चीर शब्द का उल्लेख किया है । चीरमाला और चीरवसणा से ज्ञात होता है कि यह उस समय भिखारियों एवं गरीबों के पहिनने का वस्त्र था, जो अनेक चिथड़ों को जोड़ कर बनाया जाता होगा। स्त्री, पुरुष दोनों ही इस प्रकार के जीर्ण-शीर्ण वस्त्र को परिस्थिति के अनुसार पहिन सकते थे। उन दिनों कापालिक चिथड़े कपड़ों को ही पहिनते रहे होगें। क्योंकि उनकी उपमा चिथड़े पहिने हुए स्त्री से दी गयी है (२२५.२७) ।
उद्योतन के लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व चीर-वस्त्र (फीता) का एक अच्छा उपयोग भी होता था। बाण ने ऐसे परिचारिकों का वर्णन किया है, जो शिर पर पटच्चरकर्पट या चीरा बाँधे हुए थे। यह चीरा नौकरों को, उनके काम से खुश होकर मालिक द्वारा प्रसाद-स्वरूप दिया जाता था। यह चीरिका सिर पर इस प्रकार बाँधा जाता था कि उसके दोनों छोर पीछे पीठ पर लहराते रहते थे। अजंता के चित्रों में इस प्रकार के चीरा बाँधे हुये हाथियों के परिचारिक अंकित हैं। इस प्रचार के वावजूद उद्द्योतन ने कहीं इस प्रकार का संकेत नहीं दिया। आगे चलकर चीर स्त्रियों के पहिनने के वस्त्रों का सामान्य नाम हो गया था। पटोला की किनार वाली सादी साड़ी चीर के नाम से जानी जाती थी।"
___ चीवर-कुव० में चीवर का उल्लेख एक वृद्ध व्यक्ति के चित्र के प्रसंग में हुआ है, जो चीवर और कंथा धारण किये था । इस प्रसंग में 'रो रो थेरो' शब्द भी आया है। थेर और चीवर, ये दोनों बौद्धधर्म के शब्द हैं। किन्तु यहाँ किसी वृद्ध वौद्ध भिक्षु को चीवर पहिने दिखाया गया हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। कुव० में अन्यत्र भी जहाँ वौद्ध भिक्षुओं एवं वौद्धधर्म का उल्लेख हुआ है, कहीं भी चीवर का उल्लेख नहीं है। इससे ज्ञात होता है कि ८वीं सदी में चीवर गरीब लोगों का वस्त्र हो गया था। यद्यपि टुकड़े-टुकड़े जोड़कर बनाने की परम्परा के कारण ही उसे चीवर कहा गया होगा । महावग्ग में चीवर बनाने १. बहु-रइय-चीर-मालो (४१.१८), णव-रंगय-चीरबद्धचिंधालो (४७.३०), रच्छा
कय-चीर-विरइय-मालो (१४५.४), रंक व्व चीरवसणा (१९७.२४), जर-चीरणियंसणा (२२५.२७) एवं गहिय-चीर-माला-णियंसणो (२२६.७)।
प्रभुप्रसादीकृतपाटितपटच्चरः, हर्षचरित, पृ० २१३. ३. अ०--- ह० अ०, पृ० १६३. ४. औंधकृत अजंता, फलक ३० । गजजातक (गुफा १७) । ५. वर्णक-समुच्चय भाग २, पृ० ४२ डा० सांडेसरा, बड़ौदा । ६. चीवर-कंथोत्थइओ, कुव० १८८.१८.
२. प्रभुप्रसादाकृत