Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन एवं धारण करने के सम्बन्ध में विस्तृित जानकारी दी गयी है, जिसमें यह भी है कि चीवर रास्ते में पड़े कपड़े के टुकड़ों को एकत्र कर बनाना चाहिए।'
चेलिय-कुव० के अनुसार सोपारक का व्यापारी 'चेलिक' लेकर बब्बाकुल गया और वहाँ से गजदंत तथा मोती लाया।२ यहाँ चेलिक का अर्थ भारत से बाहर जाने वाले उन वस्त्रों से है, जिनकी व्यापारिक-जगत् में काफी मांग रहती थी। कपड़ा के पर्यायवाची शब्दों में अमरकोषकार ने चैल का नाम भी लिया है।' रायपसेणिय (पृ० १५५) में रंग-विरंगे वस्त्रों को चित्त-चिल्लग कहा गया है । कीमती वस्त्रों के लिए 'सुचेलक' शब्द अमरकोष में आया है।
दिव्यवस्त्र-देवांग एवं देवदुष्य-कुव० में इन वस्त्रों का उल्लेख स्वर्ग का वर्णन करते समय हुआ है। दिव्यवस्त्र शयनासन पर बिछाने वाला चादर था (१८९.३३)। शयनासन का निर्माण मच्छरदानी सहित पलंग जैसा होता रहा होगा। क्योंकि देवांग और देवदूष्य पलंग के ऊपर वितान (चंदोवा) के रूप में फैलाये जाते थे । देवांग नामक वस्त्र पतला, हलका, कोमल, विस्तृत, मनोहर, आकाशतल जैसा, पवित्र एवं सुभग होता था, जो ठीक पलंग के ऊपर तान दिया जाता था। देवांग के ऊपर एक क्षीरसमुद्र के किनारे जैसा श्वेतवस्त्र झालर के रूप में चारों ओर लटकाया जाता था, जिसे देवदूष्य कहते थे ।" इन वस्त्रों के साक्षात् उदाहरण देना मुश्किल है।
धवलपद्धं-राजा पुरन्दरदत्त धवलमद्धं कसिणायार (८४.१०) को कमर के नीचे पहिनता है । सम्भवतः यह काली किनारी वाली श्वेत अद्धी थी। बनारस में आज भी बारीक श्वेत सूती कपड़े को अद्धी कहते हैं ।
धूसर-कपड़ा-कुव० में प्रसंग के अनुसार धूसर-कपड़ा का अर्थ मैला कपड़ा है (मल-धूली-धूसरे-कप्पडे, ५६.१)। किन्तु धूसर सम्भवतः वह मैली चादर भी हो सकती है, जिसे आजकल हिन्दी एवं पंजाबी में धुस्सा कहते हैं । गरीव यात्री धुस्सा लेकर ही यात्रा करते हैं । हो सकता है, मायादित्य ने वेषपरिवर्तन के साथ घुस्सा भी ले लिया हो।
__ धोत-धवल दुकूल-युगल-उद्द्योतन ने दुकूल का तीन वार उल्लेख किया है। राजा दृढ़वर्मन् ने धोत-धवल-दुकूल-युगल पहिने हुए सभा में प्रवेश किया ।
१. महावग्ग, चीवरक्खन्धक। २. बब्बरकुलं गओ, तत्थ चेलियं घेत्तूण, ६५.३३. ३. अमरकोष, २.६, ११५. ४. तस्स उवरि रेहइ तणु-लहु-मउयं सुवित्थयं रम्म ।
गयणयलं पिव सुहुमं सुइ-सुहयं किं पि देवंगं ॥ -९२.२९. ५. तस्स य उरि अण्णं धवलं पिहुलं पलंब पेरंतं ।
तं किं पि देव दूसं खीर-समुद्दस्स पुलिणं व ॥ -वही, ३०. ६. आगया धोय-धवल-दुगुल्ल-जुवलय-णियंसणा, ११.१६, १८.२८.