Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
View full book text
________________
वस्त्रों के प्रकार
१४५
आस्तीन कोहिनियों के ऊपर ही रहती थी, इसलिए इसका नाम कूर्पासक पड़ा ।" प्रारम्भ में सम्भवतया कूर्पासक मोटे कपड़े का बनता रहा होगा तभी ठंड में स्त्रियाँ उसे पहिनती थीं। किन्तु १० वीं सदी तक नेत्र के भी कूर्पासक बनने लगे थे, जिन्हें चित्रकार - बालक पहिनते थे । कूर्पासक के जोड़ की आधुनिक पोशाक वास्कट है । यह मध्य एशिया की वेशभूषा में प्रचलित था और वहीं से इस देश में आया । कूर्पासक का भारतीय कलानों में अंकन हुआ है । अजंता के लगभग आधे दर्जन चित्रों में स्त्रियाँ इस प्रकार की रंगीन चोलियाँ पहिने हैं, जो रंगीन कूर्पासक थे ।
अनेक उल्लेख मिलते
क्षौम - प्राचीन भारतीय साहित्य में क्षौमवस्त्र के हैं।* अमरकोषकार ने क्षौम को दुकूल का पर्याय माना है । " किन्तु दुकूल और क्षौम एक नहीं थे । कौटिल्य ने इन्हें अलग-अलग माना है । क्षौम की उपमा दूधिया रंग के क्षीरसागर से तथा दुकूल की कोमलता से दी गयी है । " अतः ज्ञात होता है कि क्षौम और दुकूल में अधिक अन्तर नहीं था । दुकूल और क्षौम एक ही प्रकार की सामग्री से बनते थे । जो कुछ मोटा कपड़ा बनता था वह क्षौम कहलाता तथा जो महीन बनता वह दुकूल कहलाता था । कुव० के अनुसार ग्रीष्मऋतु में स्त्रियाँ कोमल क्षौम के वस्त्र पहिनती थीं। इससे स्पष्ट है कि क्षौम अधिक मोटा नहीं होता होगा । हेमचन्द्राचार्य ने क्षौम और दुकूल को अधिक स्पष्ट किया है ।' डा० अग्रवाल के अनुसार क्षौम आसाम में बनने वाला एक वस्त्र था, जो उपहार स्वरूप भी भेजा जाता था । "
गंगापट - कुव० में व्यापारिक-मंडल की बातचीत से ज्ञात होता है कि चीन एवं महाचीन से व्यापारी गंगापट एवं नेत्रपट नाम के वस्त्र भारत में लाते थे । १२ उद्योतन द्वारा यह एक महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ प्रस्तुत किया गया है । इसके
४.
०
१.
२. तिलकमंजरी, पृ० १३४.
३.
५.
६.
अ० - ह० अ०, पृ० १५५.
११.
द्रष्टव्य - अ० - ह० अ०, पृ० १५३.
रामायण, २.६, २८; जातकभाग ६, पृ० ४७; महावग्ग ८.१.३६, आचारांग १.७.४.१.
क्षौमं दुकूलं स्यात् । - अमरकोष, २.६, ११३.
अर्थशास्त्र २.११
७. कुमारसम्भव, कालिदास, ७.२६, क्षीरोदायमानं क्षोमे: (हर्ष ०, पृ० ६० ) । ८. दुकूलकोमले - वही, पृ० ३६.
९. कोमलतणु - खोम - णिवसणओ । - ११३.११.
१०. अभिधानचिन्तामणि, ३.३३३.
अ० - ह० अ०, पृ० ७७.
१२. चीण- महाचीणेसु गओ महिस-गविले घेत्तूण तत्थ गंगावडिओ णेत्त- पट्टाइयं घेत्तूण लद्धलाभो णियत्तो । —६६.२.
१०