Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
View full book text
________________
सामाजिक आयोजन
१३१ तदनन्तर राजा ने कहा-'पुत्र कुमार ! मैं पुण्यशाली हूँ, जो तुम जैसा पुत्र मुझे प्राप्त हुआ। आज चिरप्रतीक्षित मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ है। अतः माज से मेरी समस्त सम्पत्ति तुम्हारी है। तुम्हें मैं राज्य का भार सौंपता हूं।' अब धर्म-कार्यों में अपना समय व्यतीत करूंगा'-'यह सब आपकी कृपा है। आपकी आज्ञा का मैं हमेशा पालन करूंगा' यह कह कर कुमार ने उठ कर राजा के चरण छुए। तदनन्तर कुवलयमाला का भी गुरुजनों को परिचय कराया गया-'दसिया कुवलयमाला गुरुजणस्स। उसने प्रणाम किया। सबने उसका अभिनन्दन किया। इस प्रकार वह दिन व्यतीत हुआ (२००.१३, १८) ।
इन्द्रमह-उद्द्योतनसूरि ने नव पावस समय के बाद इन्द्रमह, महानवमी, दीपावली, देवकूल-यात्रा, बलदेव-महोत्सव आदि का उल्लेख किया है। इन्द्रमह प्राचीन भारत में सब उत्सवों में श्रेष्ठ माना जाता था और लोग इसे बड़ी घूमधाम से मनाते थे। जैन-परम्परा के अनुसार भरत चक्रवर्ती के समय से इन्द्रमह का प्रारम्भ माना जाता हैं। रामायण (४.१६, ३६), महाभारत (१.६४, ३३) एवं भास के नाटकों में भी इसका उल्लेख है। वर्षा के बाद जब रास्ते स्वच्छ हो जाते तब इस उत्सव की धूम मचती थी। जैनसाहित्य में इन्द्रमह मनाने के अनेक उल्लेख हैं। इन उत्सवों में आमोद-प्रमोद के साथ इन्द्रकेतु की पूजा भी होती थी।" धम्मपद-अट्ठकथा (१ पृ० २८०) में उल्लिखित वज्रपाणि इन्द्रप्रतिमा की सम्भवतः इन्द्रमह में पूजा होती रही हो। इन्द्र की पूजा कृषक अपनी अच्छी फसल के लिए एवं कुमारियाँ अच्छे सौभाग्य प्राप्ति के लिए किया करती थीं ।' सौभाग्य प्राप्ति का हेतु होने के कारण इन्द्रपूजा बसंतऋतु में भी की जाने लगी थी। इन्द्रमह एक लोकोत्सव के रूप ते मनाया जाता था।
महानवमी-कुव० में महानवमी पर्व का दो वार उल्लेख हुआ है। स्थाणु को ठगने के बाद मायादित्य जब लौटकर आता है तो उसे सुनाता है कि वह
१. तुलना-उपमितिभवप्रपंचकथा, २३७.३८; तिलकमंजरी, पृ० ९३ आदि। . २. तओ कमेण य संपत्तेसु इंदमहदियहेसु, कीरमाणासु महाणवमीसु होत. मणोरहेसु दीवाली छण-महेसु पयत्तासु देवउलजत्तासु वोलिए बलदेवूसवे,
१४८.११, १२. ३. आवश्यकचूर्णि, पृ० २१३. ४. पुसालकर-भास : ए स्टडी, अध्याय १९, पृ० ४४० आदि । ५. हापकिन्स-एपिक माइथोलाजी, पृ० १२५ आदि । ६. ज०-जै० आ० स०, पृ० ४३१. ७. उत्तराध्ययनटीका ८, पृ० १३६. ८. बृहत्कल्पभाष्य, पृ० ५१५३. ९. शारदातनय का भावप्रकाश, पृ० १३७. १०. अग्रवाल, प्राचीन भारतीय लोकधर्म, अहमदाबाद १९६४.