Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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सामाजिक संस्थाएँ
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के रहते हुए भी अपनी बाहुओं द्वारा धन कमाते थे (६५.१७) तथा पिता के बाद परिवार के भरण-पोषण के लिए हर सम्भव प्रयत्न करते थे (१९१-१६२) । ऐसे साहसी एवं गुणवान पुत्रों को देखकर पिता अपने को पुण्यशाली समझता था ।' पुत्र पिता के उत्तरदायित्त्व को सम्हाल लेता था (५०.२८) ।
पुत्री - मायादित्य की कथा में सुवर्णदेवी के प्रसंग से प्रतीत होता है कि परिवार में विवाहित पुत्रियाँ भी पति के विदेश चले जाने पर अपने माता-पिता के साथ रहती थीं । कुव० की कथा से ज्ञात होता है कि कुवलयमाला के जन्म होने पर पुत्र जन्म से भी अधिक उत्सव मनाया गया । बारहवें दिन नामकरण संस्कार किया गया एवं क्रमशः अनेक कलाओं की शिक्षा दी गयी (१६२.९,१०)। अतः उस समय पुत्री की स्थिति परिवार में कम से कम अभिशाप तो नहीं मानी जातो थी | आदिपुराण के सन्दर्भों से भी इसकी पुष्टि होती है । छोटी-बड़ी बहन बड़े भाई के आश्रित रहती थीं ( कुव० २६४.१८ ) ।
तत्कालीन समाज में पुत्री अथवा नारी की परिवार में आर्थिक स्थिति क्या थी, इस सम्बन्ध में प्रस्तुत ग्रन्थ कुछ अधिक प्रकाश नहीं डालता । किन्तु चण्डसोम, मोहदत्त आदि की कथा से ज्ञात होता है कि पुत्रियां भरण-पोषण एवं मनोरंजन आदि कार्यों के लिए अपने परिवार पर ग्राश्रित थीं । विवाह हो जाने पर यदि पति विदेश आदि गया हो तो पुत्री पिता के घर पर ही रहकर समय व्यतीत करती थी । किन्तु आचरण के सम्बन्ध में शिथिलता आने पर उसका रहना वहाँ दुष्कर था ।
परिवार में एक दम्पति के कितने बच्चे होने चाहिए इसका कोई नियम तो उल्लिखित नहीं है, किन्तु गरुड़पक्षी के कथानक से ज्ञात होता है कि उसके तोन बच्चे थे—एक कंधे पर बैठा था, दूसरा गले में झूल रहा था एवं तीसरा पीठ पर चढ़ा था। पति-पत्नी को सन्तान बहुत ही प्रिय थी ।
दाम्पत्य-प्रेम—कुव० के कथानकों से दाम्पत्य प्रेम के सुन्दर चित्र प्राप्त होते हैं । विवाह के तुरन्त बाद पति-पत्नी आमोद-प्रमोद द्वारा परस्पर स्नेह व्यक्त करते थे । पत्नी पति को प्रसन्न रखने का भरसक प्रयत्न करती थी । बाहर से आने पर पति के चेहरे को देखकर उसकी थकान का कारण पूछती थीं ( १०३.३१ ) । प्यार की यह पराकाष्ठा थी कि यदि पति किसी अन्य सुन्दरी कन्या को चाहने लगता था तो पत्नी उससे पति की शादी करा देती थी
१. 'पुत्त कुमार', पुण्णमंतो अहयं जस्स तुमं पुत्तो - २००.१२.
२.
तओ तीए पुत्त - जम्माओ वि अहियं कयाइं वद्धावणयाइं - १६२.९.
३.
खंधम्मि केइ कंठे अण्णे पट्ठि समारूढा - २६६.२.