Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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वर्ण एवं जातियाँ
११३ शताब्दी में मागध यशोगायकों की भी एक जाति रही है, जो राज्यसभागों में जाकर राजाओं का गुणगान करते थे।' मागध जाति का मगध प्रदेश से घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रादेशिक जातियाँ
उद्द्योतनसूरि ने तीन प्रसंगों में प्रादेशिक जातियों का उल्लेख किया है । अनार्य जातियों के प्रसंगों में अंध, भररूचा, द्रविड़ एवं मालव (४०.२५) का, मठ के छात्रों की बातचीत के प्रसंग में अरोट्ट (१५१.१८), मालविय, कणुज्ज, सोरट्ट, श्रीकंठ (१५०.२०) का तथा विजयपुरी की मण्डी के वर्णन के प्रसंग में निम्न प्रादेशिक व्यक्तियों का उल्लेख किया है, जिसमें से अधिकांश जाति के रूप में प्रचलित हो चुके थे-गोकुल, मध्यदेशीय, मागध, अन्तर्वेदी, कीर, ढक्क, संन्धव, मारूक, गुर्जर, लाट, मालव, कर्णाटक, कौशल, मरहट्ठ, ताज्जिक तथा अंध (१५२-१५३ १०)। अंध प्रान्ध्र देश के रहनेवाले को कहा जाता था। उद्द्योतन सूरि ने अंधों को अनार्यजाति के अन्तर्गत गिना है तथा इन्हें महिलाप्रिय, सुन्दर एवं भोजन में रुद्र बतलाया है (१५३.११)। भररूचा, द्रविड एवं मालव क्रमशः भड़ोंच, द्राविड़ प्रदेश एवं मालव के निवासियों को कहा गया है। अन्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है:
प्रारोट्ट-विजयपुरी में मठ के छात्र परस्पर बातचीत करते हुये कहते हैं कि-'अरे आरोट! वोलो, जब तक भूल न जाओ (१५१:१८)।' यहाँ प्रतीत होता है कि प्रारोट छात्र की जाति का सम्बोधन है। प्राचीन भारत में आरोट्र जाति के सम्बन्ध में विचार करते हुए डा० बुद्धप्रकाश का मत है कि पंजाब में अनेक समुदायों ने आयुधों को अपनी जीविका का साधन बना लिया था तथा उनके अलग नियम विकसित हो गये थे। कौटिल्य ने इन्हें आयुधजीवी कहा है। इनमें से अधिकांश समुदायों ने जाति-व्यवस्था के नियमों का पालन करना छोड़ दिया था। किसी राजा एवं धार्मिक गुरु के संरक्षण के अभाव में इन समुदायों का कोई निश्चित स्थान निर्धारित नहीं हो सका। अतः इनको अराष्ट्रकाः (स्टेटलेस) कहा जाने लगा। प्राकृत में इन्हीं को 'आरट्ट' कहा गया। अतः कुव० में प्रयुक्त 'आरोट्ट', 'आरट्ट' का अपभ्रंश हो सकता है।
सम्भवतः यह 'पारट्ट' शब्द ही आधुनिक युग में 'अरोड़ा' के रूप में प्रयुक्त होता है। आधुनिक पंजाब में अरोड़ा बहु विस्तृत खत्री जाति के अन्तर्गत हैं।
१. शा०-आ० भा०, पृ० १५७. २. प्रश्नव्याकरण १.१. ३. अर्थशास्त्र, ५.३, १४४. ४. म. भा०, कर्णपर्व, ४४ श्लोक ३२-३३, बोधायनधर्मसूत्र १, २.१३, १५.